on Monday, September 15, 2008





मुझे लगता है कि प्रेम एक ऐसा विषय है जिस पर अनगिनत कवितायें लिखी गई है ! परंतु अगर सागर में एक बूंद बड भी जाय तो सागर के अस्तित्व में कोई परिवर्तन नहीं होने वाला !
इस कविता का उद्देश्य केवल एक विश्वास को कायम रख्नना था कि मैं कविता भी लिख सकता हूँ ! और यही विश्वास इस कविता के पीछे का वास्त्विक बल भी है !
मैं जानता हूँ कि कविता बहुत साधारण है परंतु बस यही कहुँगा कि अगर पुत्र बहुत सुदंर ना भी हो तो पिता का प्रेम कम नहीं होता !




             तुम प्रेम हो .... 

मन तू क्यों इतना विचलित है ?
इस धीर-अधीर के पथ पर तू क्यों इतना व्याकुल है ?
क्यों सन्नाटे की आहट भी हृदय को गूँज रही है ?
क्यों पसारता है अस्थिर मन, उडने को पंख गगन में ?

धमनियों में रक्त – ताप क्यों शीतल है इतना ?
क्यों सोच के सागर में सिर्फ उसकी ही परछाई है ?
क्यों उस चेहरे को सोच-सोच मुस्कुरा उठता है सारा तन ?
आनन्द की अभिलाषा में यह मन, छुना चाहता है क्यों वो दामन ?


क्यों फासलों का दर्द इतना गहराता जा रहा है ?
क्यों साँसो का प्रवाह, तीव्र वेग से उफन रहा है ?
मन्दिर की सी अनूभूति क्यों है आत्मा को ?
क्यों तेरी याद की पोटली खुद-ब-खुद खुलती जा रही है ?

भावनायें क्यों शब्दों का रूप लेने में विफल हैं ?
और क्यों शब्द यह कह गूंज रहें हैं कि ”तुम प्रेम हो ....







Darshan Mehra

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