D-51 ...

on Tuesday, November 18, 2008




समय
रात्रि के तकरीबन 1 बजे ,श्रीमान अमित कुमार जी लौटे ऋषिकेश यानि अपने गृह-शहर से ! अमित कुमार नाम से इनकी पहचान कम ही लोगों से है ! वरना ये संसार इनको “रैम्बो” नाम से ही पहचानता है ! मैं बाहर के कमरे में अर्धनिद्रा में सो ही रहा था कि रैम्बो बोला “ यार अब तो घर भी यहीं लगता है ” !


इस छोटे से वाक्य में काफी गहरा संदर्भ छुपा था ! यह कथन केवल रैम्बो के लिये ही सत्य नही था वरन हम चार अन्य दिग्गजों के लिये भी उतना ही सत्य था ! प्राय: किसी स्थान से लगाव होना वाजिब ही है जब वहाँ पर आप अपने जीवन का कोई भी हिस्सा व्यतीत करें ! लेकिन किसी घर का मतलब उस जगह से ना होकर इसमें रहने वाले लोगों से होता है ! इसीलिये हम घर उसे बोलते हैं जहाँ हमारा परिवार रह्ता है माँ,पिता भाई ,बहन आदि ! परंतु डी-51 एक ऐसा घर है जहाँ रिश्तों के नाम उपरोक्त रिश्तों में से कोई भी नहीं है लेकिन हम पाँच इसे घर ही कहते हैं !
           मैने ज्यादातर लोगों को यह कहते हुए सुना है कि हमारा बचपन जीवन का सबसे ज्यादा खूबसूरत दौर था ! जब खुशी और मस्ती का दामन थामे हुए हम सब अपनी सुन्दर सी, हसीन सी दुनिया में मदमस्त पंछी के समान विचरण किया करते थे ! परंतु मैं एक बात बहुत ठोस आधार पर कह सकता हूँ कि डी-51 के भीतर का जीवन उस हसीन बचपन से भी ज्यादा हसीन है ! अगर डी-51 के अन्दर वह बचपन की मस्ती है तो प्रौढ होने की स्वतंत्रता है ! यहाँ बचपन का अल्हडपन है तो एक-दूजे के लिये गहरे जज्बात हैं ! डी-51 की सर्वश्रेष्ट् बात बताना चाहूँ तो यह कि हम पाँचो किसी भी कार्य या आयोजन के लिये दूसरा विचार (second thought) नहीं देते ! यह एक दूसरे के लिये विश्वास है या हम पाँचों की जन्मजात प्रकृति !
चाहे रात के 2:30 बजे नोयडा की सडकों पर चाय का ठेला ढूँढना हो या आफिस से आने के पश्चात तरण-ताल(swimming pool) जाना हो ! कभी-कभी मुझे लगता है SPICE MALL में रात के 11:15 बजे की फिल्म शो का सबसे ज्यादा हकदार डी-51 ही है, कम से कम मैं तो मूवी-हाल सोने जाता हूँ 150 रू. की नींद :) !
जब से दो अन्ना :) (अरूण व सेल्वा) आये हैं तो हमारे इस घर में रही- सही कमी में पूर्णता आ गयी है ! छोटॆ अन्ना (सेल्वा :) ) ने हमें हर 15 दिन में केक काटना सीखा दिया ! चाहे वो मम्मी-पापा का जन्मदिन मनाना हो या orkut के एक अन्जान profile का जन्मदिन मनाना हो !
                जिन्दगी के साथ नये प्रयोगों के लिये डी-51 हमेशा तैयार है ,मेरे जन्मदिन पर राष्ट्रीय नाटय एकेड्मी में 2 घण्टे 20 मिनट का पकाऊ नाट्क देखना हो या बंगला साहिब के रात्रि-दर्शन ,आन्ध्रा भवन का दक्षिण भारतीय भोजन ,ये सब प्रयोगों का सिलसिला ही था ! नये साल पर पराठें वाली गली के पराठे-लस्सी कोई नही भूल सकता !
                   सही मायनों में डी-51 के सबसे मजबूत स्तम्भ चौहान और रैम्बो ही हैं ! सब्जी से लेकर राशन का अधिकतर इंतजाम ये दो भले मानुष ही करते हैं ! ज्यादातर मतलब की हम लोग भी करते हैं मगर ये दोनो जिम्मेदार मानुष हैं ! सच यह भी है कि ये दोनो के पास समय अनुपलब्धता भी कम होती है ! और डी-51 की कमजोर कडीयां अरूण और स्वयं मैं हूँ ! परंतु हम पाँच मिलाकर एक मजबूत नींव बनाते हैं !
                घरो में आज के व्यस्त दौर में वह पुरानी परम्परा कायम है या नही परंतु डी-51 के भीतर रात्रि-भोजन मिलकर ही होता है ! घर के मुखिया के समान चौहान इस आयोजन का प्रतिनिधित्व करता है ! सामान्यत: अगर कोई सदस्य रात्रि में देरी से पहुँचे तो रात्रि-भोजन 11:30 बजे देर तक भी किया जाता है !पार्वती माता की भागीदारी भी डी-51 की सफलता में महत्त्वपूर्ण है ! वह हमारे घर पर खाना ,बर्तन,झाडू करने आती है और उसके द्वारा बना हुआ भोजन वाकई स्वादिष्ट होता है ! कुछ और लोग डी-51 की सफलता का हिस्सा रहे हैं बल्कि आलोक तिवारी तो शुरूआती दिनों के आधार का मजबूत हिस्सा रहा ! बिष्ट की खामोशी डी-51 में ही टूट पायी :) !
                                 क्रिकेट का फितूर का आलम देखो की विश्व कप से पहले डी-51 के दो महापुरूष एक महीने के लिये टी.वी. ही किराये पर लाने चल पडे (जो कि बाद में हमने खरीद ही लिया) ! होली के दिन की ह्ल्दी ,डिटरजेंट और हरपिक की होली हो या नये साल के दिन के दिल के आकार के गुब्बारे हो या शिमला का family picnic हमेशा जिंदादिली और गहरे रिश्तों का मिसाल है डी-51 !

                         इस लेख को लिखने की प्रेरणा अरूण का वह सपना है जिसने डी-51 को आशंकित कर दिया है ! जिस सपने के अनुसार डी-51 केवल एक साल तक बाकि है और उसके पश्चात सब अपनी-अपनी राह !मैं प्रार्थना करता हूँ कि यह एक साल कई सालों से बडा हो !
इस लेख की गरमजोशी या तो वह समझ सकता है जो डी-51 का हिस्सा रहा हो या फिर जिसने डी-51 में समय बिताया हो ! परंतु अगर आप इस कहानी का सारांश निकालना चाहें तो आप एक सीख जरूर ले सकते है डी-51 से !
भूतकाल गुजर चुका,भविष्य दूर है, इसलिये वर्तमान को भरपूर
जियो खुशी बिखेरते हुए और गम के साथ लडते हुए ! “

D-51 जिन्दाबाद !!!!!!


Darshan Mehra


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on Monday, September 15, 2008





मुझे लगता है कि प्रेम एक ऐसा विषय है जिस पर अनगिनत कवितायें लिखी गई है ! परंतु अगर सागर में एक बूंद बड भी जाय तो सागर के अस्तित्व में कोई परिवर्तन नहीं होने वाला !
इस कविता का उद्देश्य केवल एक विश्वास को कायम रख्नना था कि मैं कविता भी लिख सकता हूँ ! और यही विश्वास इस कविता के पीछे का वास्त्विक बल भी है !
मैं जानता हूँ कि कविता बहुत साधारण है परंतु बस यही कहुँगा कि अगर पुत्र बहुत सुदंर ना भी हो तो पिता का प्रेम कम नहीं होता !




             तुम प्रेम हो .... 

मन तू क्यों इतना विचलित है ?
इस धीर-अधीर के पथ पर तू क्यों इतना व्याकुल है ?
क्यों सन्नाटे की आहट भी हृदय को गूँज रही है ?
क्यों पसारता है अस्थिर मन, उडने को पंख गगन में ?

धमनियों में रक्त – ताप क्यों शीतल है इतना ?
क्यों सोच के सागर में सिर्फ उसकी ही परछाई है ?
क्यों उस चेहरे को सोच-सोच मुस्कुरा उठता है सारा तन ?
आनन्द की अभिलाषा में यह मन, छुना चाहता है क्यों वो दामन ?


क्यों फासलों का दर्द इतना गहराता जा रहा है ?
क्यों साँसो का प्रवाह, तीव्र वेग से उफन रहा है ?
मन्दिर की सी अनूभूति क्यों है आत्मा को ?
क्यों तेरी याद की पोटली खुद-ब-खुद खुलती जा रही है ?

भावनायें क्यों शब्दों का रूप लेने में विफल हैं ?
और क्यों शब्द यह कह गूंज रहें हैं कि ”तुम प्रेम हो ....







Darshan Mehra

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पितृत्व – एक यात्रा

on Sunday, August 17, 2008





लेखन, एक संतुष्टि और एक आवश्यकता बन चुका है मेरे लिये ! एक निश्चित समयांतराल के पश्चात अंत: से आवाज आती है कि कुछ भावनाओं को शब्दों के रूप में उकेर कर संतुष्टि पायी जाय ! संतुष्टि अपने कच्चे-पक्के लेखक को प्रौढ् बनाने की कोशिश की !
आज का लेख मेरे लिये दिल के करीब है क्योंकि विषय के नायक पाँच बच्चे हैं
सोना , सूबी , सज्जाद , साबरीन और जुलेखा !

पृष्ठ्भूमि से प्रारंभ करते हैं ! आज से ठीक एक वर्ष पूर्व यानि 15 अगस्त 2007 को हम 10-12 युवक-युवतियाँ स्वतंत्रता दिवस मनाने पहुँचे एक स्कूल में “नई दिशा फ्री एजुकेशन सोसाईटी नोएडा “ ! कुछ भारतीय सेना के के सेवानिवृत अधिकारीयों ने करीब 12-15 वर्ष पूर्व इस स्कूल की नींव रखी ! यह स्कूल गरीब तबके के बच्चों की निशुल्क पढाता है ! स्वतंत्रता दिवस का वह समारोह मेरे लिये बहुत ही प्रेरक था ! हम लोग इतने युवा होने के बावजूद AID-PRAYAS (यानि हमारा प्रयास) में केवल शनिवार – रविवार की कक्षायें चलाने में पूरी तरह से सफल नही हो पा रहे थे ! और उन लोगों ने वृद्ध होने के बावजूद सफलता को नमन किया था ! हाँलाकि मैं मानता हूँ कि हम युवाओं के पास रोजगार एक ऐसा क्षेत्र है जो हमारे लिये समय की बाध्यता उत्पन्न करता है !

प्रयास के काफी सारे बच्चों( तकरीबन 20 बच्चे) का सरकारी विद्यालय में प्रवेश तो करा दिया था परंतु सरकारी प्रबन्ध की असफलता यहाँ भी मौजूद थी ! बच्चे स्कूल तो जाते हैं परंतु उनका मानसिक और शैक्षणिक विकास सही तरीके से हो ऐसा वातावरण नही है ! कक्षा चौथी-पाँचवी के बच्चे हिन्दी पढना नही जानते ! विजय भैया की प्रेरणा से सितम्बर 2007 से मैने केवल हिन्दी मात्रा और लेखन की कक्षायें लेनी शुरू की ! बहुत मेहनत के बाद बच्चों का हिन्दी भाषा-ज्ञान सुधर रहा था ! लेकिन एक अडचन थी वह ये कि हम बच्चों को केवल सप्ताहंत (शनिवार-रविवार ) में पढा पाते थे ! इसी मध्य हमें पता चला कि “ नई दिशा” स्कूल हमारे बच्चों को भर्ती कर सकता है ! अगर बच्चे परीक्षा उतीर्ण कर जायॆं ! यह बहुत बडी आशा की किरण थी हमारे लिये ! सभी Volunteers इस दिशा में सोच तो रहे थे परंतु कुछ ठोस कर पाना मुश्किल हो रहा था ! वजह यही कि सप्ताह में दो दिन पढाने से अपेक्षित परिणाम हासिल करना असंभव था ! काफी मेहनत के बावजूद जब सब कुछ व्यर्थ सा लगा तो एक दिन मैंने अरूण से बोला “ यार मैं बच्चों को रोज पढाना चाहता हूँ , पर कैसे पढाया जाय ये नही पता “ ! यद्यपि कठिन था पर इसका जवाब मैंने स्वयं ही ढूँढा ! रात को आफिस से आने के उपरांत 9 से 11 बजे तक पढाया जा सकता था !

जनवरी 2008 के प्रथम सप्ताह से रात्रि कक्षा शुरू की ! मुझे लगा था कि मैं अकेले ही कर लूँगा पर बहुत मुश्किल था , समय हर मुश्किल का जवाब दे देता है ! विकास और कनन ने भी साथ आना शुरू किया ! और हम तीन लोगों की टीम धीरे-धीरे लक्ष्य प्रप्ति के लिये लग गये ! लक्ष्य कठिन था क्योंकि ENGLISH जैसा विषय बच्चों के लिये बिल्कुल नया था औअर हमारे पास केवल 3 महीने थे !
पितृत्व का दौर अब शुरू हुआ ! पहली कक्षा A-B-C-D से शुरू हुई ! प्रत्येक कक्षा के बाद हम एक-एक बच्चे के लिये कुछ नया-नया प्लान बनाते ! सज्जाद को Drawing पसन्द थी तो उसको Drawing की मदद से पढाते थे ! सोना गणित में कमजोर थी तो उसकी गणित पर विशेष ध्यान दिया जाता था ! मुझे याद है कि small a-b-c-d शुरू करने में हम कितना घबरा रहे थे परंतु बच्चे “ नई दिशा “ जाने के लिये दृढ थे ! हमारी कक्षा का सबसे बडा मकसद रहता था “एक अच्छा ईंसान बनाने की नींव रखना” ! आज बच्चे झूठ नही बोलते,गाली नही देते,साफ-सुथरे रह्ते हैं आपस में लडते तो हैं पर मदद भी करते हैं !

मेरे लिये जनवरी से अप्रेल तक के वो तीन माह एक तपस्या के समान थे ! पढने के अलावा जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात थी वह ये कि हम लोग बच्चों के लिये एक पिता की तरह मह्सूस करने लगे थे ! अगर एक दिन कक्षा न जाओ तो बच्चे हम तीनों में से किसी दूसरे के फोन से फोन कर देते थे और सबसे पहला सवाल होता थ कि “सरजी आप क्यों नहीं आये ?“ ! हम लोग भी अगले दिन उनसे मिलने के लिये अत्यधिक उत्सुक रहते थे !

मार्च 2008 के आखिरी सप्ताह का वो दिन जब बच्चों का TEST था “नई दिशा” में ! मैं अपने बोर्ड की परीक्षा के लिये इतना नहीं घबराया कभी जितना इन बच्चों के TEST के लिये घबराया था ! मैं रोज पूजा नहीं करता हूँ पर उस दिन बच्चों की सफलता के लिये भगवान के द्वार भी पहुँच गया ! कनन अपने हर पेपर से पहले मम्मी से बात किया करता था अच्छे परिणाम के लिये ! और बच्चों की सफलता के लिये उस दिन भी उसने सुबह-सुबह मम्मी से फोन पर बात की :) !

बच्चों ने TEST में बहुत अच्छा नहीं किया क्योंकि यह वातावरण उन्होंने पहले नहीं देखा था ! और वैसे भी 3 माह में A-B-C-D से ENGLISH पढ – लिख सकने की उनकी हिम्मत काबिले-तारीफ तो थी परंतु यह वातावरण बिल्कुल नया था !

नई दिशा के मैनजमैंट से हमको एक प्रकार से लडाई लडनी पडी अपने बच्चों का पक्ष रखने में और आखिरकार सोना और सूबी कक्षा 3 में और जुलेखा , सज्जाद और साबरीन कक्षा2 में प्रवेश पाने में सफल हुए ! हम सबने यह सफलता को बहुत विशेष तरीके से मनाया ! Cake काटा गया और बच्चों को उनकी सफलता के लिये treat दी गई ! हम सब आनंदित थे विशेषत: क़नन ,विकास और मैं ! हमारे भीतर का पितृत्व बहुत सुखद मह्सूस कर रहा था !

        और आज का 15 अगस्त हम पून: “ नई दिशा” पहुँचे और संयोगवश केवल हम तीनों यानि मैं ,कनन और विकास ! आज हम पिछ्ले साल की तरह केवल volunteers की तरह नहीं गये थे वरन हम अभिभावक की तरह पहुँचे थे ! हमारे बच्चे अपने दोस्तों को बुला-बुलाकर बोल रहे थे कि ये हमारे दर्शन सर ,विकास सर और कनन सर हैं ! उस क्षण की खुशी को व्यक्त करना कठिन है !
           मैं कह सकता हूँ कि 15 अगस्त 2007 से 15 अगस्त 2008 तक देश ने विकास किया हो या न हो ,देश ने आजादी मह्सूस की हो या नही हो ! परंतु सोना ,सुबी ,जुलेखा,साबरीन और सज्जाद ने जरूर आजादी को मह्सूस किया होगा ,
                             

“अज्ञान से ज्ञान की आजादी, बेहतर शिक्षा पा सकने की आजादी “

शाम को AID-PRAYAS के 15 अगस्त समारोह में हमारी पितृत्व भावना उच्चतम स्तर पर थी जब इन बच्चों ने सबको यह कह सुनाया !

Thank You God for the world so sweet,
Thank You God for the food we eat,
Thank You God for the birds that sing,
Thank You God for everything!

Amen !!




A video which was created for AID-Noida can be viewed on the context of above story ..
https://www.youtube.com/watch?feature=endscreen&v=ydbmBc0biLo&NR=1





Darshan Mehra


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प्रेमचंद्र् के गाँव

on Wednesday, May 7, 2008




महान
साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद्र सही मायनों में हिन्दी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ युग का प्रतीक हैं ! 1880 से 1936 तक के छोटे से जीवनकाल में मुंशीजी ने हिन्दी साहित्य की जो सेवा की उस मील को शायद ही कोई छूँ सके ! मेरे इस लेख की प्रेरणा मुंशी जी की लेखनी की वह मौलिकता है जो कि उनके जीवनंतराल के ग्रामीण भारत की स्पष्ट प्रतिविम्ब पेश करता है !

मैं अकसर अपने अनुभवों को आप सब (पाठकों) के साथ बाँटता हूँ जहाँ कल्पना और अमौलिकता के लिये प्राय: स्थान नहीं होता ! और मैं पून: उपस्थित हूँ अपने इस चिरपरिचित अन्दाज के साथ !!
आज के लेख का शीर्षक मेरे मस्तिष्क में उस समय आया जब मैं अपने गाँव में रात के अन्धेरे में पंचलाईट(LPG Petromax Light) जलाने की कोशिश कर रहा था ! लगभग 3-4 लोग लगे हुए थे एक बडे सिलिंडर में से 4-5 छोटे-छोटे सिलिंडरों में गैस भरने में ! कभी नट-बोल्ट खोलने वाली चाँबी का नम्बर कम पड जाता तो कभी सिलिंडर के नोजल से गैस रिसने लगती पूरे बाखली ( 4-5 घरों का क्रम जिनके आँगन जुडे हुए हो) में गैस की तीव्र गंध फैलने लगी ! यह अभ्यास इसलिये नहीं हो रहा था कि गाँव में बिजली नही थी ! बल्कि इसलिये हो रहा था कि गाँव में अकसर लोग उन समारोहों पर बिजली काट देते हैं जब किसी न चाहने वालों के घर खुशी के दीप जल रहे हों ! प्राय: ये लोग ईर्ष्या और संकीर्ण मांसिकता से ग्रसित होते हैं !

प्रेमचंद्र की कहानियों के पात्र आज से 100-150 साल पहले भी कुछ ऐसे ही हुआ करते थे ! कोई हल्कू के गेहुँ के खेत में अपने गाय चरने डाल देता था तो कोई गाँव की नहर को तोड कर लोगों की फसल नष्ट कर देता था ! मेरा गाँव छोटे पहाडी शहर से 3-4 किमी. दूर है इसलिये विकास की पौंध यहाँ बोई तो जाती है पर उसको पनपने नहीं दिया जाता ! पानी के नल हर दूसरे घर में हैं ,
टेलिफोन की लाईन कम से कम 40 घरों में है यहाँ
तक की रसोई गैस के लिये सिलिंडर हर घर में पहुँच चुका है ! काफी समय से एक जंग चल रही थी वह थी सडक निर्माण की ! मैने पापाजी को कई सालों से “सूचना के अधिकार” यानि आज कल के बहुचर्चित RTI एक्ट का उपयोग करते देखा है ! मैने कई बार पापाजी को लखनऊ और बाद में देहरादून की सरकारी गलियारों के लिये फाईल तैयार करते हुए देखा है और इन फाईलों का विषय हमेशा एक ही होता था “गाँव में सडक-निर्माण “ पापाजी सरकारी कर्मचारी हैं इसलिये हमेशा पत्राचार भेजने वाले की नाम की जगह मम्मी का नाम होता था :) ! और खास बात यह है कि इस बार जब् मैं गाँव गया था तो रोड के लिये काम आधा हो चुका था और साल भर में गाँव में सडक पहुँच चुकी होगी ! आखिरकार उस प्रयास में पापाजी(मम्मी के नाम के साथ :) ) सफल हो ही गये जिसको देखते-2 मैं बच्चे से बडा हो गया !

एक अल्फाज जो मैं अक्सर प्रयोग करता हूँ वह है असमाजिक तत्व , ये वो प्राणि होते हैं जो समाज को दूषित करने में आनन्द उठाते हैं !
गाँव की टेलिफोन लाईन की बात करते हैं ,जमीन के भीतर से फाईबर बिछी हुई है और असमाजिक तत्वों का कृत्य देखो ,वो या तो जमीन को खोद के फाईबर को काट देते हैं या फिर उसमे आग लगा देते हैं ! प्रत्येक वर्ष दो या तीन बार ऐसी घटना जरूर घटती है ! पानी की लाईन का भी कुछ यही हाल है गर्मीयों में कुछ लोग अपने खेतों की सिंचाई करते हैं तो कुछ को पानी के लिये 2-3 किमी. चलना पडता है ! लेकिन एक बात है जो कि “प्रेमचंद्र के गाँव” में हमेशा से विद्यमान है वह है समाजिकता !

कितने भी असमाजिक तत्व क्यों न पनप जायें ,गाँव की समाजिकता को नहीं डिगा सकते !
गाँव मे आज भी अगर कोई वृद्ध बीमार पडता है तो कई नौजवान कंधे तैयार है डोली (सामान्यत: शादी के दिन दुल्हन को डोली में बिठा कर विदा किया जाता है ) में वृद्ध को अस्पताल पहुँचाने को ! 3-4 किमी. की ठेठ चडाई जिसमें अकेले चढना मुश्किल होता है कंधे पर डोली लेकर मरीज को अस्पताल पहुँचाया जाना समाजिकता का ही प्रतीक है ! किसी चोटिल हो चुके बैल/गाय को रात्रि में बाघ के भक्षण के लिये नही छोड़ा जाता बल्कि कई सारे युवा उसे कंधों पर लाकर गौशाला तक पहुँचाते हैं ! और अगर गरीब की लडकी की शादी होती है तो गाँव के लोगों की भागीदारी का यह आलम होता है कि समारोह की सफलता पर कोई भी आशंका न रह सके ! एसे कई उदाहरण हैं जो इस समाजिकता का बखान भली-भाँति करते हैं !

इस लेख का उद्देश्य कोई निष्कर्ष निकालना नही है वरन इस तथ्य से भिज्ञ करवाना है कि “प्रेमचंद्र के गाँव” ज्यादातर मामलों में आज भी उसी पग पर खडे हैं जहाँ आज से 100 साल पहले थे ! ऐसे समाजिक और असमाजिक विभाजन कई प्रकार के हैं परंतु एक बात जो आज के परिदृश्य में भी सत्य है वह ये कि समाजिकता जो कि बडॆ शहरों में बहुत तीव्र गति से विलुप्त होती जा रही है वह गाँवों में संघर्ष तो कर रही है परंतु असमाजिक तत्वों को पट्खनी देने में अभी भी सक्षम है !





Darshan Mehra

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क़विता..

on Wednesday, February 20, 2008




भारतीय अर्थव्यवस्था और विकास का प्रमाण – दिल्ली मैट्रो !!
मेरे लिये सप्ताह के पाँच दिन दिल्ली मैट्रो से यात्रा करना एक आदत ही है ,परंतु ये क्या ? आज तो रविवार है और आज भी मैट्रो से यात्रा ? और वो भी मै अकेला नहीं मेरे साथ दो और लोग !
मुझे याद नहीं कि किस बात से हम तीनों बचपन की यादों में चले गये ! और शुरू हुआ दौर, बचपन में स्कूल में की गई गलतियों का वर्णन करने का :) !!
मुझे याद है कि कक्षा 9 में समाजिक विज्ञान में एक प्रश्न था !
प्र. आपरेशन फ्लड क्या होता है ?
मेरा उत्तर था, जिस कक्ष में घातक बीमारीयों से सम्बन्धित सामान जो आप्रेशन के समय काम आये रखे जाते है ,उस कक्ष को आपरेशन फ्लड कहा जाता है ,इस कक्ष में ही घातक बीमारीयों के आपरेशन भी किये जाते है :) ! वास्तव में आपरेशन फल्ड भारत में आयी दुग्ध क्रांति (श्वेत क्रांति ) को बोला जाता है ! हा हा :)

ऐसा ही जवाब था चौहान के सह्पाठी का
प्र. कबीर के जीवन पर प्रकाश डालिये ?
उसने कुछ लिखे बिना एक चित्र बनाया जो कुछ नीचे बने चित्र जैसा था शायद आप खुद ही समझें :) :)


फिर एक बच्चे की कापी याद आयी जिसने लिखा था
प्र. गाँधीजी कहाँ पैदा हुए थे ?
उ. गाँधीजी गाँधी चौक पर पैदा हुए थे :) :)
इन सब मस्ती भरे और हास्यास्पद किस्सों पर ठहाके मारते हुए ,हँसते हुए हम तीनों (मैं ,सेल्वा और अरुण ) दिल्ली विश्वविद्यालय मैट्रो स्टेशन पहुँचे ! वहाँ से साईकल – रिक्शा से तीमारपुर के एम.सी.डी. गोदाम पहुँचे,जहाँ AID-आशायें नाम से युवाओं का एक संगठन एक समुदाय के बच्चों की शिक्षा के लिये कार्यरत हैं !
अरे यह मेला सा क्या लगा हुआ है ? टेन्ट वाले ने उस छोटे सी जगह को एक अच्छा सा मंच बनाने में अच्छी कोशिश की थी !
ना होली है,ना दीवाली,ना ही 15 अगस्त और ना तो 26 जनवरी,तो ये कैसा मेला है ? इतने सारे बच्चे और बच्चों का उत्साह, देखने योग्य था , और किसी भी त्यौहार से बेहतर लग रहा था ! पूरे समुदाय के ढेर सारे बच्चे इंतजार में थे कि कब उनकी जिज्ञासा का अंत होगा कि आखिरकार यहाँ क्या होने वाला है !स्वयं में एक प्ररेणा, विजय भैया सपरिवार मुख्य द्वार पर खडे थे ! मैने बचपन में किताबों में पढा हुआ है कि महान लोगों का ललाट (माथा) ओजस्वी और तेजपूर्ण होता है, और भैया से मिलकर मुझे बचपन की वह बात बार-बार याद आती है !


तकरीबन 8-9 साल की एक छोटी सी बच्ची विजय भैया के गोद में बैठने को आतुर हो रही थी ,मुझे लगा वह बच्ची भैया को पूर्व से जानती है ! भैया ने थोडी देर उसको गोद में बैठाकर नीचे उतारा,फिर वो मेरी गोद में आने लगी, सेल्वा ने बताया कि यह बच्ची हमेशा ही किसी ना किसी की गोद में बैठने का प्रयत्न करती है ! पहले थोडा अजीब लगा मुझे पर बाद में उस बच्ची की लालसा देख कर मैंने उसे गोद में ले लिया!
मैंने उससे नाम पुछा तो वो कुछ नही बोली ! मेरे चेहरे को छुने लगी, मुझे धीरे से थप्पड मारने लगी ! यद्यपि सभी बच्चे प्यार और अपनेपन की भाषा को बहुत खूब समझते हैं मगर ये बच्ची तो स्वयं में ही प्रेम के दीप के समान थी ! उसे इस बात की परवाह नही थी की वो किस के गोद में हैं ,उसे यह भी नहीं पता था कि मैं कौन हूँ !
उसे परवाह थी तो यह की वो कैसे प्यार करे और उसे कैसे प्यार मिले !


मुझे कुछ – कुछ असाधारण सी लगी यह बच्ची ,वह केवल किसी से भी प्यार पाने को उत्सुक रह्ती थी ! मुझे सेल्वा ने बताया कि उस बच्ची का नाम “ क़विता “ है और वह मानसिक रूप से कमजोर है !! एक पल के लिये मेरा मन दुखी हुआ लेकिन फिर मैंने सोचा कि सही में इस दुख का कोई वास्तविक कारण है भी या ये एक मिथ्या है ! जितने भी लोग इस आयोजन में सम्मिलित थे उनमें से “कविता” एक मात्र इंसान थी जिसे केवल एक ही भाषा का ज्ञान था ,प्यार की भाषा !!! क्या यह दुखी होने का कारण हो सकता है ? कदापि नहीं !! और मैं पून: खुश हो गया !
"" मेरे विचार से क़विता हम सब में श्रेष्ठ थी !""


जैसे ही मंच पर कार्यक्रम शुरू हुआ , एक बहुत सुंदर नाटक का मंचन किया गया, और यह नाटक भी “कविता” के उपर आधारित था ! कहानी का सारांश यह था कि हमें कविता के साथ भी एक साधारण इंसान के समान व्यवहार करना चाहिये ! काफी प्रभावशाली मंचन था बच्चों के द्वारा !!
कविता अभी भी मेरे गोद में बैठी हुई, मंच पर अलग – अलग कार्यक्रमों को देखती और अंत में मेरे साथ तालियाँ जरूर बजाती ! अचानक से एक धमाकेदार गीत(आजा नच ले....) चला जिस पर 3-4 छोटी लडकियाँ मंच पर नाच रही थी ! कविता मेरे गोद से तुरंत उतरी और मंच की तरफ भागने लगी ! पहले तो सारे लोगों ने उसे रोकना चाहा जबकि मैं चाह रहा था कि उसको मंच पर जाने दिया जाये , थोडी देर में वो मंच पर नाचने लगी :) ! उसकी खुशी का आलम नहीं था ! अगर अतिश्योक्ति का प्रयोग करूँ तो


“ कविता ऐसे नाच रही थी जैसे बेसुध होकर मीरा कृष्ण-प्रेम में नाचती होगी “ लेकिन कविता जीवन प्रेम में नाच रही थी शायद ! हमारी तरह उसके मस्तिष्क की सीमायें ,परिवार ,स्कूल,समाज,देश,ज्ञान और विद्या के दायरे में खत्म नही हो जाती ! उसका जीवन अनंत सीमाओं को छू सकता है !
इस छोटी सी बच्ची को मानसिक कमजोर बोलना गलत होगा चूँकि ये लडकी तो ईश्वर के सबसे करीब है !
सारे कार्यक्रम को AID-Aashayen ( आशायें ) के सदस्यों ने बहुत ही प्रभावशाली बनाया था ,समुदाय के छोटे और कुशाग्र बच्चों का कुशल अभिनय,नृत्य और आत्मविश्वास देखने योग्य था ! बच्चों ने मंच पर आकर अपने भविष्य की आकाँक्षायें बतायी कि कोई ईंजीनियर बनना चाहता है तो कोई पूलिस वाला,यह सब सुनना निसंदेह सुखद था,बहुत प्रेरक था !
यद्धपि कविता नही बता सकती है कि वो क्या बनेगी या क्या बनना चाहती है लेकिन क्या उसे इन समाजिक महत्तवकाक्षाओं और भौतिकता वादी लक्ष्यों की आवश्यकता है भी ?
उसके लिये जीवन में खुशी और प्यार ही काफी है बल्कि काफी हद तक हमारे लिये भी ये दोनों चीजें सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है जो शायद हम भूल जाते है !!





Darshan Mehra

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नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ..

on Monday, January 14, 2008



On 5 July 1943,
Netaji took over the command of the Indian National Army, and then
christened Azad Hind Fauj (Free India Army). Arrived from Manila in time to review the
parade of troops standing alongside with Rashbehari Bose, the founder of Indian National
Army. Addressing the soldiers, Netaji said:

अपने पूरे जीवन से मैं सीखा हूँ कि-
हिन्दुस्तान के पास वो हर एक चीज है जो आजादी के लिये आवश्यक है ,अगर कोई कमी है तो वो है एक सेना की, “आजादी की सेना” !!!
वाशिंगटन ने अमेरिका को ऐसी ही सेना के बल पर आजाद करवाया ,इटली को आजादी ऐसी ही सेना ने दिलवायी ! आप खुद को सौभाग्यशाली समझो कि “आजाद हिन्द फौज“ बनाने में आप लोग सबसे पहले आगे आये !
जवानो ,मुझे नही मालूम की हम में से कितने लोग इस आजादी की लडाई के बाद जीवित बचेंगे ! पर मैं इतना जरूर जानता हूँ कि, आखिरकार जीत हमारी होगी !
हमारा मक्सद तब तक पूरा नहीं होगा जब तक कि हम में से जीवित बचे हुए योद्धा दिल्ली में बैठे अंग्रेजी कुशासन को कुचल कर जीत का बिगुल न बजा दें !

जवानों दिल्ली चलो, तुम मुझे खून दो ,मैं तुम्हें आजादी दूँगा ! जय हिन्द !!!!

सच कहुँ तो उपरोक्त लेख मैने AID-Aashayen के बच्चों के Fancy Dress Competition के लिये तैयार किया था, या ये कहना चहिये कि मैने हिन्दी रूपांतरण किया ,परंतु Internet से काफी कुछ पढ्ने को मिल गया ! Internet के द्वारा महान राष्ट्रवादी और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महनायक नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के जीवन का विस्तुत ज्ञान हुआ!

काफी कुछ पढने के पश्चात दो विचार मेरे जहन में उठे !!!
1. क्या प्रत्येक भारतीय जनमानुष सही मायनों में स्वतंत्र हो चुका है ?
अगर हाँ तो, क्या ऐसी ही स्वतंत्रता को हासिल करने के लिये इतना संघर्ष किया गया था ? आशय यह है कि हम स्वतंत्र तो हैं इसमे कोई शक नही है परंतु हम में से कितने लोग स्वतंत्र हैं ?
देश के 37 % लोग आज भी दो जून की रोटी के लिये मोह्ताज हैं और एक तिहाई जनता प्राथमिक शिक्षा तक नही पाती है !

2. लेकिन असल सवाल जो मेरे दिमाग को परास्त कर गया वो यह कि सही मायनों में इतने बडे देश को इतने सूक्ष्म साधनों के दम पर,
कैसे देश को हमारे महानायकों ने स्वतंत्र कराया होगा ?
नेताजी ने तो देश से बाहर रह्कर ही “आजाद हिन्द फौज” को नेतृत्व प्रदान किया ! सच बोलूँ तो शायद यह कहना कतई अतिशयोक्ति नही होगा कि हमें पूनः एक और क्रांति की जरूरत है जो आजादी की लडाई के समान एक बार फिर से, देश के प्रत्येक नागरिक को अशिक्षा और भूख की दासता से मुक्त करें !
क्या ऐसी क्रांति के लिये आज हमारे पास नेताजी जैसे सशक्त महानायक हैं ?

नेताजी को समर्पित ..


Darshan Mehra

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