" रवैया.. "

on Saturday, May 26, 2012

1.

हड्डियों के भीतर तक पहुँच रही सर्दी से कंपकंपाते शरीर को मफलर ,जैकेट ,दस्तानों और मंकी कैप से थोड़ी राहत मिली ...  पहले मन किया आज छुट्टी कर दी जाए बच्चों की ,शीत लहर अपने बल का अहसास कराती सी  जैसे शरीर को घावों से छलनी कर रही थी !  "इतनी कटीली व कष्टदायी" थी ये सर्दियां ऊपर से  घुप कोहरा दिल्ली की सर्दी को जानलेवा बना देता है  ! मगर बच्चों की "लगन" और  "हौंसले" को याद किया तो छुट्टी करने का विचार सर्दी की धुप की तरह गायब हो गया ...२००८ के  जनवरी महीने  का तीसरा हफ्ता होगा , बच्चे  बड़ी  " ABCD .. " सीखने की लड़ाई जीतने के पश्चात छोटी " abcd "  सीखने की जंग की तैयारी कर रहे थे ...  6 X 10 फीट के कमरे में , गंदे नाले की तरफ से वही कटीली सर्द हवा अपना  पराक्रम प्रदर्शित करते हुए मेरा और इन 7 - 8  बच्चों का जैसे  इम्तिहान ले रही थी  .. नाले की तरफ की दीवार में खिड़की नहीं है मगर दीवार में एक-२ ईट  छोड़ कर, देशी हवामहल बनाने  की ये तरकीब सर्दियों में कतई दुखदायी साबित होती  है .. 8-9  साल की शबनम  काफी कन्फ्यूज है छोटे "बी" और "डी " में .. आधा अंडा , खड़े डंडे के सीधी तरफ लगेगा या उल्टी तरफ ... मगर ये क्या उसके  हाथ तो  कपकपां रहे हैं ..ध्यान खींचो तो  झुग्गी की उस लडकी का पूरा शरीर काँप रहा है .. बुखार नहीं है मगर कडाके की ठण्ड बच्ची को भी कोई रियायत नहीं दे रही  ..
~ बेटा स्वेटर कहाँ है ? केवल एक  पतली से फ्राक  में क्यों आयी है ? मम्मी  कहाँ  है ? जल्दी से बुला के ला !! ... मेरे इतने सारे  सवालों का जवाब क्या देती ,सिर नीचे करके चुप हो गयी वो ..
~ क्या हुआ ??
~ सरजी एक ही स्वूटर है मेरा ,मेरी बहिन  जुबैदा का और मम्मी का ,मम्मी को हस्पताल ले गये हैं  ना (उसकी माँ ७ बच्चों के बाद फिर से पेट से है ) तो वो मैंने मम्मी को पहना दिया ... 

एक मिनट के लिए मैं खुद को दुनिया का सबसे मजबूर व कमजोर  इंसान समझने लगा ... कुछ भी नहीं कर सकता था मैं ... मगर "कुछ न कर पाने की ये मजबूरी " कभी-२  बहुत  जरूरी है शायद ,हमको अपने वर्चस्व पे कहीं गुमाँ न हो जाए.. इसलिए जरूरी  ... 

~ बेटा "स्वूटर" नहीं "स्वेटर"  ... अच्छा तू एक काम कर ,आज की क्लास रहने दे ,घर जाकर खाना खा और बिस्तर में घूस जाना ,वरना ठण्ड से बीमार हो जायेगी ...
~ सरजी नहीं , मुझे पढ़ना है .. 
उसने अपनी कापी आगे की ,छोटे "डी" की जगह "बी" बनाया था ....

रिक्शे से वापस  आते समय मैं सोच में डूबा रहा कि वाकई में हम किन छोटी -२ बातों को लेकर दुखी व निराश रहते हैं , "साधनों की कमी ,बदकिस्मती का रोना ,कम  CTC का रोना ,और हाँ levi's की जींस का डिस्काउंट के बाद भी छब्बीस सौ का होने का रोना  ... जैसे कि खुश व संतुष्ट न होना हमने अपना धर्म सा बना लिया हो ... हाँ हुमने ,हम सबने ...

शबनम से पूछो एक बार तो बतायेगी वो कि हमारी जिन्दगी  कितनी "भरपूर व खुशहाल "  है , .... मगर काश कि  हम अपने नजरिये में भी भरपूरता व खुशहाली  का अहसास कर पायें  ...
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२.

इन्फोसिस चंडीगड़ मेरी नई कर्मभूमी , आई टी कंपनियों की भव्यता का पूर्ण प्रदर्शन ... शाम के ६ बजे बाहार निकलो तो जैसे मेला लगा है हर तरफ .. स्वीमीइंग पूल में गोताखोरों की हलचल है, तो जिम में हर कोई हृतिक रोशन की तरह "एब्स" निकालने के लिए जी जान से मेहनतकश  ... ८-१० ट्रेडमिल पे जब लड़के लडकियां दौड़ रही होती हैं तो लगता है जैसे जिन्दगी भी इतनी ही तेज रफ़्तार है , मगर ट्रेडमिल की ही तरह एक ही स्थान पर कायम भी  ... हमें अहसास होता तो है कि हम आगे बढ़ रहे हैं, मगर असल में वही निराशाएं  और संशाधनो की कमियों का रोना हमको एक ही स्थान पर कायम रखता है  .. 

                 शतरंज ,कैरम ,टीटी ,बैडमिन्टन ,टेनिस ,बालीबाल ,बास्किटबाल ,क्रिकेट , फुटबाल सभी कुछ तो है ... और हाँ कुछ बाशिंदे गिटार के साथ ड्रम की धुन मिलाकर गीत गा  रहे हैं तो कई सुन्दर लडकियां एरोबिक्स में म्यूजिक पर थिरकती रहती हैं ... इसी सबके बीच बहुत विशाल फूडकोर्ट  जहाँ पर सैकड़ों लोग भोजन कर सकते हैं ... तकरीबन साढ़े पांच बजे मैंने चाय की पर्ची कटवाई और चाय लेकर पीछे मुड़ा  ... एक व्यक्ति पर दूर से नजर पड़ती है ... कुछ ख़ास है उसके चेहरे पर ... करीब ६00-७००   लोग बैठे होंगे फूडकोर्ट  में !  मगर उसके चेहरे पर जितनी खूबसूरत हँसी थी वैसी किसी के भी चेहरे पर नहीं थी ... "ओज" इतना मनमोहक था कि कारण ढूँढ पाना मुश्किल था ... मैं २ मिनट तक देखता रहा और प्रभावित होकर एक सोच में डूबा चाय पीने लगा ... अतिश्योक्ति कतई नही होगी अगर मैं ये कहूं कि पूरे हॉल में उसके चेहरे की चमक अद्वितीय और आकर्षक थी ...कारण  समझ पाना मुश्किल था , चूंकी आई टी कंपनी का पेशेवर अक्सर तो हज़ारों प्रश्नचिन्हों में फंसा ,भविष्य ,परिवार,प्रोजेक्ट, कैरियर और EMI की चिंता करता हुआ  तथाकथित दुखों ,असंतुष्टी  व निराशा के भंवर में फंसा हुआ रहता है ...सो उसके इतना खुश होने का कारण ढूँढ पाना अत्यंत मुश्किल था ...

                       चाय पीने के बाद एक कालेज के मित्र से मुलाक़ात हो गयी और मैं अपने सारे विचारों को समेटता सा कालेज के दिनों की यादों में मशगूल हो गया ... थोड़ी ही देर में मेरे बगल वाले क्यूबिकल का एक सहयोगी एक व्हील-चैयेर धकेलता  हुआ मेरे सामने से गुजरा ... मैं अचंभित था कि  व्हील-चैयेर पर बैठा हुआ इंसान वही मनमोहक हँसी वाला इंसान था ...और सबसे ज्यादा अचंभित और  भयावह बात यह थी कि उसका निचला शरीर यानी कमर से नीचे का शरीर  था ही नहीं ,शायद किसी भयावह ऐक्सीडेंट का शिकार हुआ  होगा ..केवल ४०-४५ प्रतिशत शरीर ही मौजूद था ..... वह अभी भी उतना ही खुशमिजाज और हर्षित था ... सामान्य सोच के हिसाब से और लोजिक्ली मुझे उस इंसान से सहानुभूति होनी चाहिए थी मगर उसके चेहरे के ओज व खुशी से मुझे  बाकी सब से सहानुभूति होने लगी ... सच ही  है कि केवल सोच का फरक है ....

   " सोच " और " जिन्दगी की ओर हमारा रवैया "  ही  हमें खुश और दुखी बनाता है  .. साधन चाहे कितने भी हो ,कम लगते हैं और चाहे  कुछ भी न हो , मगर संतुष्टी फिर भी हासिल कि जा सकती है ..
     चाहे वो व्हील-चैयेर पर बैठा अत्यंत ओजवान व्यक्ति  हो या नन्ही सी बच्ची शबनम , बिना कुछ कहे काफी कुछ सीखा जाते हैं हम सबको .....

Pictures : Courtesy Google