सन्नाटे और सुकून में सिर्फ थोड़ा सा फर्क मालूम होता है मगर यथार्थ में देखा जाय तो "सन्नाटा " दर्द का आभास कराता सा हो सकता है जबकि सुकून "आत्मीय" सा ! यद्दपि दोनों को परिभाषित करना मेरी क्षमताओं से परे है ! कुछ सुकून सा महसूस हुआ तो लिखने बैठा ,सोचा कुछ तो लिखा जाए ..देखते हैं ये अध्याय कहाँ जाकर "इति" होता है !
पहाडी गाँव में रात की शादी ,कुछ मर्दों का समूह पूडियां बनाने में व्यस्त ! वो पूड़ी बनाने वाली मशीन चलाने वाला व्यक्ति अपनी रफ़्तार में कुछ इस तरह मग्न होता है कि भूल जाता है पूड़ी का गोल होना उतना ही आवश्यक है जितना की स्वादिष्ट होना !
"अगर किसी सर फिरे बाराती को ये अर्ध चंद्राकार पूड़ी पसन्द नहीं आयी तो बौबाल हो ही जाएगा, ध्यान रखो रे लौंडो हम लडकी वाले जो ठहरे" तम्बाकू की चिलम गुडगुडाते हुए बूबू बोले ( बूबू यानी कोई भी उम्रदराज व्यक्ति ,वैसे बूबू का शाब्दिक अर्थ "दादाजी" या "नानाजी" ) !
चूंकी ननिहाल था तो सारे या तो मामा कहलाते थे या फिर बूबू ! पहाडी गाँव की क्या खूब खासियत है कि चाहे अपने गांव के लोग हो या फिर ननिहाल के हर व्यक्ति कुछ ना कुछ रिश्ते में जरूर कहलायेगा ! और इन रिश्तों का गोलमाल कुछ इतना अजीब है कि कुछ लडके जो उम्र में हैं तो छोटे, मगर हमारे "चाचा " कहलाते और भाभी के उम्र की महिलायें "दादी" ! एक बात याद आयी कि नई दुल्हन गाँव में पहुँची ही थी कि मुंह दिखाई के समय मेरी बहन हाथ जोडते हुए बोली "दादी प्रणाम " ..और बेचारी नई दुल्हन के चेहरे की सकपकाहट देखने योग्य थी ,बहन द्वारा ये मश्खरी जानबूझ के की गयी थी मगर सच में वो रिश्ते में "दादी" लगती थी :P !
मेरी उम्र से कुछ १-२ साल बढ़ा मेरा मामा ,वो भी उस पूड़ी बनानी वाली मंडली का सक्रिय सदस्य था ,चूंकी मैं मेहमान था ननिहाल में, मुझे ये लाभ अर्जित था कि मैं केवल मंडली में बैठा हुआ तो था मगर मुझे कोई काम नहीं दिया गया था ! ये मामा मेरे दूर का रिश्ते वाला मामा ही था !
ऐसा ही कोई मामा बोला "यार मुझे तो वो पीली वाली पसंद आयी और मैने जब उसको थोड़ी देर निहारना शुरू किया तो वो भी मुझे एकटक देख रही थी ,लगता है आज की शादी में अपनी शगाई भी हो ली :) " ये सब सुनकर सबके सब युवा ठहाके में डूब गये !
" बेटा बारातियों की तगड़ी टीम आयी है कुछ गुश्ताखी मत करना कहीं "शगाई" के बजाय "धुलाई" न हो जाए " किसी समझदार की राय थी ये ,और इन सब बातों के बीच मैं ७-८ साल का बच्चा अपने चेहरे को भावविहीन करते हुए बैठा ,भावों को छिपाने की भरसक कोशिश में लगा हुआ !
किसी अगले मामा ने बोला "आज तो भाई रात यहीं कटेगी ,सुना है खुशाली(खुशाली दुल्हन का भाई था ) ने VCR का बंदोबस्त किया हुआ है ,और पिक्चर रात को १२ बजे से पहले शुरू नहीं करेंगे वरना बहुत भीड़ हो जाती है "
कोई चिल्लाया "अबे ऐसे जोर से न बोल सब लोगों को पता चल जाएगा तो किसी को भी पिक्चर नहीं देखने को मिलेगी,बारातियों के लिए पिक्चर आयी है और तुम चिल्लाओगे तो किसी भी घराती को फ्री की पिक्चर देखने को नहीं मिलेगी "
"अबे तो क्या हुआ नहीं देखने देंगे तो क्या हम पैसे जमा करके खुद नहीं देख सकते ? "
दूसरा पहले से "अबे तू कमाल का ढक्कन है ,फ्री की पिक्चर देखने को मिल रही यहाँ ,और तू पैसे जमा करके पिक्चर देखेगा ????
खाना-पीना होने के बाद बारात की मशरूफियत थोड़ी कम होनी शुरू हुई ! मुझे लौट के घर आना था मगर इस अंधेरे में अकेले तो मैं लौट नहीं सकता था इसलिए मैंने मामा से जिरह की ! पर उसके चेहरे के भाव देख कर लगता था की "पिक्चर प्रेम " उसका भी जाग गया था ! अब जाने अनजाने मुझे भी रुकना पडा ! मेहमान होने के नाते मुझे आसानी से एंट्री मिल गयी जबकी मेरी उम्र के बच्चों को बिलखते छोड़ आँगन के उस टुकडे की तरफ नहीं जाने दिया जा रहा था जहां रंगीन टीवी पर पिक्चर चल रही थी !
"मर्द" और "एलान~ऐ~ जंग" दो पिक्चर लाई गयी थी ,मुझे बस इतना याद है कि दोनों पिक्चरों में "हीरो" कमाल के "हीरो" हुआ करते थे ! एक तरफ अमिताभ बच्चन यानि "मर्द" की हर एक ढिसुम-२ पर तालियाँ बजती ! दूसरी तरफ "जंग" का "एलान" किये हुए धर्मेन्द्र सीने में कवच पहने और म्यान से तलवार निकालते शत्रु की सेना की वाट लगाता तो "बराती" क्या और "घराती" क्या सब चकाचौंध रह जाते ! इस मनोरंजन के बीच अगर मैं सबसे ज्यादा किसी बात से चिंतित था तो वो था नाना जी यानी बूबू के रौद्र रूप से !
बूबू का रौद्र रूप का एक किस्सा ये है कि एक बार मैं और मेरा वो मामा पिक्चर हाल में पिक्चर देखने चले गये "फूल और कांटे " .. और ननिहाल पंहुचने के बाद बूबू ने खतरनाक कांटे दिये मुझे .. उनका डायलाग " नतिया ,ऐसा करो तुम अपना झोला झिमटा पकड़ो और वापस हो लो अपने गाँव ,तुम अब बडे हो गये हो ! कल सुबह सुबह रवाना हो जाओ :) "
मर्द और एलान~ऐ~ जंग तो रात्री में देख ली सुबह-२ बूबू ने जो सबसे पहली बात बोली वो ये थी कि "इतनी रात को और इतनी देर तक टीवी देखने का असर ये होता है कि आपकी आंखे बस खराब ही होने वाली हैं "इस बात को इतने उदाहरणों और इतनी संजीदगी से मुझे सुनाया गया था कि मैं कच्ची उम्र का बालक भयाकूल होकर सच में बहुत डर गया था ! बूबू मेरे आदर्श इंसानों में से एक थे उनकी बातों और उनके जीवन का मुझ पर काफी असर है और जब वो इस तरीके से बोलेंगे तो भैया मैं तो भयभीत था अपनी आँखों के लिए ! अगले पूरे हफ्ते मैं जब भी टीवी के सामने बैठता तो हर १० मिनट के बाद मुझे वो "भय " चिंतित करता सा वहां से उठा लेता ! आज वो सब सोचकर बाल मन की सीमाएं ज्ञात होती हैं !
बूबू जी जैसे अनुशासन प्रिय ,संगठित ,अभिनव सोच और वक्त के साथ चलने वाला व्यक्ति मैने बहुत कम देखें हैं ! संगीत पसंद होने पर वो "चल छय्यां -छय्यां ,छय्यां छय्यां...." सुन लेते तो कभी भी व्रत ( फास्ट ) न रखने वाले वही इंसान १५ अगस्त या २ अक्टूबर पर देश प्रेम में व्रत रखा करते !
"लक्ष्य " पिक्चर का वो सीन याद आता है जब ऋतिक को प्रीती के पिताजी बोलते हैं "कि जो भी करो अच्छा करो ,घास काटने वाला बनो तो अच्छे से घास ना काटो तो क्या मजा और अगर साईंटिस्ट बनो तो अच्छा आविष्कार न करो तो क्या मजा " ,बूबू इस वाक्य को जीवंत करते रहे जीवन भर !
उनको सब्जी काटते देखो तो उस ख़ूबसूरती से काटते कि पूरी थाली अलग-२ सब्जियों के रंगों की रंगोली लगती ,अपनी किताबें पढते तो हर एक किताब पर उनकी सुन्दर लेखनी से लिखे हुऐ नोट्स उनकी रचनात्मकता का कायल बना देती ! मैंने बूबू जी से एक पौधे के ऊपर दूसरे पौधे का कलम लगाना सीखा है ,उनकी एकाग्राता और तन्मयता ऐसी होती जैसे कोई शास्त्रीय संगीत का शिक्षक अपने छात्रों को सुर ताल की नई-२ शिक्षा देने में तल्लीन हो ! अपने बगीचे के फूलों से उनको इतना प्रेम था कि जानते थे कि कब कितना पानी और कब कितनी खाद देना है !
८० कि उम्र में उनके हाथ का खाना क्या लाजवाब होता था ,असल में उनकी लगन और तन्मयता का प्रेम उस भोज में मिठास सा भर देता था ! बूबू जी अपने पास हमेशा एक नोट्स बनाने वाले कापी रखते थे ! कहीं भूल न जाऊं इसलिए हर कार्य विधिवत नोट किया जाता और वक़्त पे कार्य को निपटाया जाता ! हाँ अगर उनको कोई रात्रि के समय उनका एक पेग रम (RUM -Regular use medicine ) पीते देख ले तो वो इस आदत का कायल होकर खुद भी अपना ले :) ! ये एक पेग रम को सच में दवा की तरह लिया जाता था ! शाम के साढ़े सात बजे से शुरू होकर पूरे एक घंटे में ये एक पेग ख़त्म होता था ! दालमोट और पापड़ धीरे-२ उस रम का साथ देते और एक घंटे का ये सफ़र रेडियो पर बीबीसी (खालिश चीजों की ऐसी पहचान की रेडियो पर बीबीसी की ख़बरों को सुने बिना उनका दिन कभी पूरा नहीं हुआ चाहे कितना भी टीवी देख लो ) की खबरे और फिर डीडी पर समाचार सुन कर भरपूरता के साथ जीया जाता !
जिन्दगी को जिस "भरपूरता" आनंद व "उत्साह " से बूबू जी जीते थे वह "अविवरणीय" और "अतिप्रेरक" है और हमेशा रहेगा ! ..
" ढाई साल हुए बूबू जी को गये हुए ,अचानक ही उनके उस "जीवन उत्साह" को जीवित रखने कि ये कोशिश "
13 comments:
mast as usual! :)
ये mast as usual* वाली बात कुछ हज़म नहीं हुई , ऐसा नहीं कि इससे ऐसा पता चलता हो कि दर्शन मेहरा खराब लेखक है , इससे ऐसा पता चलता है कि selva ganapathy बहुत ख़राब पाठक है |
बहरहाल, इस चीज से ज्यादा फर्क मुझे कभी पड़ा नहीं, बस पहले बोल नहीं सकता था, अब बोल सकता हूँ |
जब तुम गाँव की बात करते हो तो बीच बीच में तुम्हारी कलम बहक जाती है , तुम उसे रोक देते हो | सच बताऊँ तो जहाँ तुम्हारे विचार फुदककर कागज़ पर तुम्हारे लिखे से बाहर चले जाते हैं, वहां पर पढने में ज्यादा मजा आता है, जबकि वहां पर तुमको लगता होगा कि ये मैं क्या लिख रहा हूँ लोग समझेंगे भी या नहीं | इसी समझी-नासमझी में तुम सोचकर अलंकारपूर्ण भाषा का प्रयोग कर लिखने लगते हो |
'नतिया ,ऐसा करो तुम अपना झोला झिमटा पकड़ो और वापस हो लो अपने गाँव ,तुम अब बडे हो गये हो ! कल सुबह सुबह रवाना हो जाओ' पूरे पोस्ट की जान ये लाइन |
मुझे जाने ऐसा क्यों लगता है कि अगर तुम गाँव के बारे में लिखो थोडा हलके-फुल्के स्वर में, उन लोगो के किरदार को तुम पहचानते हो, उन के संवाद, आपसी बातचीत, उनकी सोच, अगर इन सब के बारे में तुम लिखते हो तो एक फ्लो आता है तुम्हारी राइटिंग में | ये मेरा अपना सोचना है, कि पहाड़ी गाँवों को, उनके संस्कारों (संस्कार, परंपरा वाले संस्कार नहीं) को, उनके सुख दुःख को, उनकी रोजमर्रा की जिंदगी में समाये सदियों सी रातों को, ऊंघते मीलों जैसे लम्बे दिनों को, स्लेटी टोपी पहने छड़ी टिकाते यहाँ वहां घाम तापते बूढों को, खाली घरों में खिडकियों से उडती हुई धूप को तुम बेहद खूबसूरत ढंग से चित्रित कर सकते हो | तुम्हारे फ्लो का और तुम्हारे लिखे में इन्नोसेंस का एक मुरीद होने के नाते ये सब कह रहा हूँ, बाकी तुम कुछ भी लिखो ये तुम्हारी इच्छा है |
मेरे पिछले कमेन्ट में 'खराब' शब्द को लापरवाह से बदल दिया जाए | हमें ये बात मालूम होनी चाहिए कि selva ganapathy न सिर्फ हिंदी पढता है बल्कि बहुत अच्छी हिंदी लिखता भी है, इसलिए खराब शब्द सही नहीं जमता है |
virus yeh comment sirf tum hi likh sakte the.. mere mast as usual comment likhakh ke likhith ke baare mein tha balki unke bhavnavon ke liye nahi....
aaur aapko yeh baat mal0om honi chahiye ya pehle se hi maaloom hai?... aapke doosri comment humko samajh nahi aaya!
आपका लिखा बढिया लग रहा है, कृपया background हलकी और मेटर डार्क करें...... पढ़ने में बहुत असुविधा हो रही है.
mast as usual.... :)
achcha likha hai ...lekin just a suggestion
the whole thing did not have a smooth flow
I mean as if either I lost focus or you didnt really talk about BuBuji as much as I expected you to...the article started with a description of a marriage and suddenly shifted to BuBuji aur mujhe dono hi incomplete lage.
दर्शन यार एक बात बताओ, तुम जो भी कुछ लिखते हो.. पहले उसका शीर्षक सोचते हो , फिर लिखते हो... या बस अपना एक अनुभव बाटते हो.... ? बाकी बात बाद में करते है!!! मेरे प्रश्न का सही उद्येश्य समझ गए होगे, ऐसी मेरी आशा है...
बढ़िया ! उनकी यादों को जीवित रखने की बेहतर कोशिश ! शुभकामनायें !
@Selva :- Thanks dude for your encouragement
@Neeraj :- काफी हद तक सहमत हूँ तेरी राय से ,ध्यान रखूँगा आगे !
@पंकज :- ओह्ह शुक्रिया आपने भी चेष्ठा कर दी :)
@दीपक बाबा जी :- मुझे पूरा दिन लगा ,ब्लॉग का template change करने में ..लेकिन आपकी राय से ब्लॉग को नया लुक मिल गया ,सो शुक्रिया
@Kalindi & Power Blog :- पूरा लेख केवल बूबू जी पर ही फोकस नहीं किया जा सकता था ,गुणगान करना केवल उद्देश्य नहीं था मगर फिर भी निरंतरता में जो ब्रेक लगा उसको अगली बार सुधारने कि कोशिश करूँगा !
@सतीश सक्सेना जी :- धन्यवाद ,आप भी नॉएडा में कार्यरत हैं ऐसा लगता है और कुछ-२ उसी क्षेत्र में जिसमे मैं भी थोड़ा कार्य कर लेता हूँ ! आपसे और वार्तालाप अपेक्षित है !
पहली बार आप के ब्लॉग पर आया हूँ आकर बहुत अच्छा लगा , आपकी कहानी भी बहुत सुंदर लगी ,
कभी समय मिले तो //shiva12877.blogspot.com ब्लॉग पर भी अपने एक नज़र डालें ..
बूबू जी शीर्षक है पर..
सब मैस सा हो गया है...शीर्षक से हम बंध जाते है करके तो इसलिए पोस्ट कुछ ज्यादा मजेदार नहीं ठहरी..
झमाज़म बारिस को देख कर और आप का बूबू ब्लॉग बॅड्कर मुझे भी अपने बूबू और अमा की याद आ गयी. बूबू
को गये एक साल और अमा को चार महीने हो गये है पर उनकी यादे अभी भी हमारे पास है. जैसे की उनकी बाते :-
१. रात को जल्दी सोना चाहिया और प्रतकाल जल्दी उटा करो
२. कोई भी काम छोटा बड़ा नही होता, काम को पूरी ईमानदाई से करना चाहिये.
३. अपने माँ बाप की बात मानना
४. कभी झूट मत बोलो
आज कल के ज़माने में उन सीधांतो पर चलना आसान नही है , क्योकी मॅनेजर और लोगो को आज कल सचे लोग पसन्द
ही नही है.उन सीधांतो पर अमल करने का परियास जारी है .
आइ अम मिस माई अमा और बूबू................ आइ लव उ अमा और बूबू
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