प्रेमचंद्र् के गाँव

on Wednesday, May 7, 2008




महान
साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद्र सही मायनों में हिन्दी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ युग का प्रतीक हैं ! 1880 से 1936 तक के छोटे से जीवनकाल में मुंशीजी ने हिन्दी साहित्य की जो सेवा की उस मील को शायद ही कोई छूँ सके ! मेरे इस लेख की प्रेरणा मुंशी जी की लेखनी की वह मौलिकता है जो कि उनके जीवनंतराल के ग्रामीण भारत की स्पष्ट प्रतिविम्ब पेश करता है !

मैं अकसर अपने अनुभवों को आप सब (पाठकों) के साथ बाँटता हूँ जहाँ कल्पना और अमौलिकता के लिये प्राय: स्थान नहीं होता ! और मैं पून: उपस्थित हूँ अपने इस चिरपरिचित अन्दाज के साथ !!
आज के लेख का शीर्षक मेरे मस्तिष्क में उस समय आया जब मैं अपने गाँव में रात के अन्धेरे में पंचलाईट(LPG Petromax Light) जलाने की कोशिश कर रहा था ! लगभग 3-4 लोग लगे हुए थे एक बडे सिलिंडर में से 4-5 छोटे-छोटे सिलिंडरों में गैस भरने में ! कभी नट-बोल्ट खोलने वाली चाँबी का नम्बर कम पड जाता तो कभी सिलिंडर के नोजल से गैस रिसने लगती पूरे बाखली ( 4-5 घरों का क्रम जिनके आँगन जुडे हुए हो) में गैस की तीव्र गंध फैलने लगी ! यह अभ्यास इसलिये नहीं हो रहा था कि गाँव में बिजली नही थी ! बल्कि इसलिये हो रहा था कि गाँव में अकसर लोग उन समारोहों पर बिजली काट देते हैं जब किसी न चाहने वालों के घर खुशी के दीप जल रहे हों ! प्राय: ये लोग ईर्ष्या और संकीर्ण मांसिकता से ग्रसित होते हैं !

प्रेमचंद्र की कहानियों के पात्र आज से 100-150 साल पहले भी कुछ ऐसे ही हुआ करते थे ! कोई हल्कू के गेहुँ के खेत में अपने गाय चरने डाल देता था तो कोई गाँव की नहर को तोड कर लोगों की फसल नष्ट कर देता था ! मेरा गाँव छोटे पहाडी शहर से 3-4 किमी. दूर है इसलिये विकास की पौंध यहाँ बोई तो जाती है पर उसको पनपने नहीं दिया जाता ! पानी के नल हर दूसरे घर में हैं ,
टेलिफोन की लाईन कम से कम 40 घरों में है यहाँ
तक की रसोई गैस के लिये सिलिंडर हर घर में पहुँच चुका है ! काफी समय से एक जंग चल रही थी वह थी सडक निर्माण की ! मैने पापाजी को कई सालों से “सूचना के अधिकार” यानि आज कल के बहुचर्चित RTI एक्ट का उपयोग करते देखा है ! मैने कई बार पापाजी को लखनऊ और बाद में देहरादून की सरकारी गलियारों के लिये फाईल तैयार करते हुए देखा है और इन फाईलों का विषय हमेशा एक ही होता था “गाँव में सडक-निर्माण “ पापाजी सरकारी कर्मचारी हैं इसलिये हमेशा पत्राचार भेजने वाले की नाम की जगह मम्मी का नाम होता था :) ! और खास बात यह है कि इस बार जब् मैं गाँव गया था तो रोड के लिये काम आधा हो चुका था और साल भर में गाँव में सडक पहुँच चुकी होगी ! आखिरकार उस प्रयास में पापाजी(मम्मी के नाम के साथ :) ) सफल हो ही गये जिसको देखते-2 मैं बच्चे से बडा हो गया !

एक अल्फाज जो मैं अक्सर प्रयोग करता हूँ वह है असमाजिक तत्व , ये वो प्राणि होते हैं जो समाज को दूषित करने में आनन्द उठाते हैं !
गाँव की टेलिफोन लाईन की बात करते हैं ,जमीन के भीतर से फाईबर बिछी हुई है और असमाजिक तत्वों का कृत्य देखो ,वो या तो जमीन को खोद के फाईबर को काट देते हैं या फिर उसमे आग लगा देते हैं ! प्रत्येक वर्ष दो या तीन बार ऐसी घटना जरूर घटती है ! पानी की लाईन का भी कुछ यही हाल है गर्मीयों में कुछ लोग अपने खेतों की सिंचाई करते हैं तो कुछ को पानी के लिये 2-3 किमी. चलना पडता है ! लेकिन एक बात है जो कि “प्रेमचंद्र के गाँव” में हमेशा से विद्यमान है वह है समाजिकता !

कितने भी असमाजिक तत्व क्यों न पनप जायें ,गाँव की समाजिकता को नहीं डिगा सकते !
गाँव मे आज भी अगर कोई वृद्ध बीमार पडता है तो कई नौजवान कंधे तैयार है डोली (सामान्यत: शादी के दिन दुल्हन को डोली में बिठा कर विदा किया जाता है ) में वृद्ध को अस्पताल पहुँचाने को ! 3-4 किमी. की ठेठ चडाई जिसमें अकेले चढना मुश्किल होता है कंधे पर डोली लेकर मरीज को अस्पताल पहुँचाया जाना समाजिकता का ही प्रतीक है ! किसी चोटिल हो चुके बैल/गाय को रात्रि में बाघ के भक्षण के लिये नही छोड़ा जाता बल्कि कई सारे युवा उसे कंधों पर लाकर गौशाला तक पहुँचाते हैं ! और अगर गरीब की लडकी की शादी होती है तो गाँव के लोगों की भागीदारी का यह आलम होता है कि समारोह की सफलता पर कोई भी आशंका न रह सके ! एसे कई उदाहरण हैं जो इस समाजिकता का बखान भली-भाँति करते हैं !

इस लेख का उद्देश्य कोई निष्कर्ष निकालना नही है वरन इस तथ्य से भिज्ञ करवाना है कि “प्रेमचंद्र के गाँव” ज्यादातर मामलों में आज भी उसी पग पर खडे हैं जहाँ आज से 100 साल पहले थे ! ऐसे समाजिक और असमाजिक विभाजन कई प्रकार के हैं परंतु एक बात जो आज के परिदृश्य में भी सत्य है वह ये कि समाजिकता जो कि बडॆ शहरों में बहुत तीव्र गति से विलुप्त होती जा रही है वह गाँवों में संघर्ष तो कर रही है परंतु असमाजिक तत्वों को पट्खनी देने में अभी भी सक्षम है !





Darshan Mehra

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