जग्गा,घोडा,नाडू और लम्बू- दोस्ती

on Friday, September 24, 2010

बारीश और नोस्टाल्जिया(Nostalgia) में कोई महीन रिश्ता जरूर होता है,बारीक सा !
मुझे तो ऐसा लगता है.. इसीलिये लिखने बैठ गया हूँ आज !

वो रात घनघोर बारीश की ही थी .. पांच दोस्त किसी भयावह जंगल में बने उस अँधेरे कमरे में,"मिट्टी तेल" के दीए के सहारे,अँधेरे से युद्ध विराम के लिए संघर्ष कर रहे थे ..पूरा कमरा धुंए से भरा हुआ और 15-16 साल के ये पांच किशोर उन गीली लकड़ियों में मिट्टी-तेल डाल-२ कर चूल्हे को गरम रखने की भरसक कोशिश में व्यस्त ! रोड से कुछ १०-११ किमी. चढ़ाई करते हुए आप ऐसे सुनसान रास्तों से गुजरते हैं जहां पर दिन के १२ बजे भी अन्धेरा होता है,

अपने जीवन में पहली बार किसी रोड को खत्म होते देखा था यानी रोड का , घुमावदार सड़क मुड कर वापस खुद में समा जाती है .. जगह को कुकुछीना बोला जाता है ! कुकुछीना से ही पहाड़ पर कुछ १०-११ किमी. की चढाई ..हमको पता था कि ऊपर पहुंचकर केवल एक कमरा मिलेगा बिना किसी साधन के ..तो हमारे पास अपना-२ कम्बल से लेकर आटा ,चावल,सब्जी ,दाल और सारी जरुरी चीजें थी ! सांय के करीब सवा पांच बजे जब इस पहाडी रास्ते के शीर्ष पर पहुंचे तो नजारा अवर्णनीय था,इस अँधेरे जंगल से गुजरते हुए घनघोर पहाडी के शीर्ष पर एक बड़ा सा मैदान, अकल्पनीय व अचंभित करने वाला दृश्य ! गोल्फ ग्राउंड की तरह वृहद एवं विस्तृत ! पिछले ढाई घंटों की सारी थकान छु मंतर सी हो गयी ! लगता था जैसे सारी दुनिया तो हमसे नीचे है,पहाड़ों की खूबसूरती का ही आलम है कि नजर दूर तलक चली जाती है .. प्रक्रति इतनी मदमस्त होती है पहाड़ों में,तृप्त करने वाले मोहक ख़ूबसूरती ! शायद इसी वजह से आशीष है पहाड़ों को, बकायदा "देवलोक" भी तो कहते हैं !
अज्ञातवास के समय कौरव ,पांडवों का पीछा करते-२ कुकुछीना(कौरवछीना ) पहुंचे और वहाँ से पांडवों ने इस जंगल से होते हुए इस पहाडी की शीर्ष पर वक़्त गुजारा,इसी वजह से ये जगह पांडूखोली(पांडवों की झोपडी ) कहलाती है . पांच मूर्तियाँ पाँचों पांडवों की हैं और ये जो बड़ा सा ग्राउंड सा जो है इसे "भीम की गुदड़ी" अर्थात "भीम का गद्दा" माना जाता है ! ये सूचना इस मंदिर के पुजारी "शर्मा जी" ने दी ..शर्मा जी कुकुछीना से रोज दोपहर में चलकर शाम की पूजा करने पांडूखोली पहुंचते थे और करीब ६ बजे लौट जाते थे ! समझ नहीं आता की भगवान् को इतनी भी क्या मेहनत करवानी थी मनुष्य से की ऐसे दुर्गम जगहों पर आकर बसे !शायद जानता था कि मनुष्य खुद की पतन की तरफ बढेगा तो बेहतर है दूर-२ ही रहो इस से :) ..

उस पहाडी के शीर्ष पर बने उन दो कमरों में से एक कमरे की चाभी देकर शर्मा जी ने हमको पानी का इंतजामात दिखाया..एक कुआ था गहरा सा,दिखने में अच्छा जरूर लगता था मगर बरसाती पानी इकट्ठा था और उसमे भी बरसाती कीड़े .. पहली बार को तो लगा कि पीने वाले पानी का कुआ अलग होगा पर शर्मा जी बोले की यहाँ से कुछ 14-15 किमी दूर जंगल में "भरतकोट" पहाडी की तरफ पीने का साफ़ पानी है ! दूरी और जंगली रास्ते की वजह से ज्यादातर लोग इस पानी को ही छानकर और उबालकर पीते हैं ..पहली बारगी तो इंसान देख के उल्टी ही कर दे .. पर जटिल अनुभव,भविष्य को सुन्दर तरीके से देखने का मौक़ा भी देता है हमारे रवैये पर सब निर्भर है !


शर्मा जी के प्रस्थान के बाद सबसे पहला काम जो किया,वो था लकड़ी ढूंढने का ताकि रात को खाना बना सकें,अगस्त के महीने में दिसम्बर वाली ठण्ड थी यहाँ ! पहाडी की ऊँचाई का अंदाजा लगाईये कि 1998 में जब सारे बड़े शहरों पर FM रेडिओ नहीं आता था उस पहाडी पर वो 300 रूपये का FM रिसीवर (कश्मीरी गेट बस अड्डे पर आजकल ये काला छोटा डिब्बा सिर्फ 60 -70 रूपये में मिलता है ) ही हमारा एकमात्र मनोरंजन का साधन था ! वैसे इसके अलावा हम पाँचों ही बहुत प्रसिद्ध बेसुरे गायकार भी थे !

"पानी बनाकर" (अर्थात छानकर ,उबालकर ,फिर छानकर ) हम लोग चूल्हे में आग जलाना शुरू हुए कि आग जल ही न दे ..रोज की बरसात की वजह से लकडीयां गीली थी और हमारे पास लिमिटेड मिट्टी का तेल था .. एक माचिस का डिब्बा तकरीबन पूरा ख़त्म होने वाला था तब जाकर चुल्हा गरम हुआ और हमारी रसोई शाम के ८ बजे से साढ़े बारह बजे रात तक कुल पांच लोगों का भोजन बनाती रही ! दीए ने काफी साथ दिया मगर आपको रात्री के पहर में उस कक्ष में किसी को भी सू सू आ जाए तो क्या उपाय? सोचियेगा ? दीया तो बाहर की हवा में जलेगा भी नहीं ..
माचिस कि तिल्ली जला-जला कर एक दोस्त की नेचरस कॉल के उपाय हेतु पाँचों दोस्त बाउंड्री के बाहर जाते उस रेडियो को साथ लेकर,ताकि डर कम लगे,रात्री के २ बजे मंदिर परिसर से रानीखेत जो कि 60 -65 किमी दूर था ऐसा दीखता था जैसे बहुत गहराई में हो और हम खुद आसमां के तारों को छूं लेने की उचाईयों पर ! बहुत दूर किसी दूसरी पहाडी पर कुछ तारे से नजर आते थे,वो शायद एक काफी छोटा पहाडी गाँव और उस दूरस्थ स्थान पर भी बिजली होना बड़ी बात थी ! FM पर मधुर गीत "हुस्न पहाड़ों का क्या कहना की बारहों महीने यहाँ मौसम जाड़ों का " .. और इस जद्दोजहद के बीच माचिस की आखिरी तिल्ली भी खत्म.. उस अंधेरे में ही जाकर सो गये ..

अगली सुबह चाय तक नहीं बना सके थे पाउडर वाले दूध से और हम सब ये प्रार्थना कर रहे थे की " शर्मा जी वक़्त पर आ जाएँ औ भगवान् करें की वो बीडी-सिगरेट पीते हों " ,शर्मा जी करीब 12 -1 बजे पहुंचे और पहली बार किसी की बीडी पीने की आदत पर हमको इतनी खुशी हुई ,वरना 10 -12 किमी. नीचे जाकर माचिस लाना उफ़ क्या हाल होता !

बर्तन मांजना एक कष्टकारी काम था और इसका सरल उपाय ये निकाला गया कि टेनिस कि बॉल से मैच खेला जाएगा ! जग्गा,लम्बू और नाडू एक टीम में(नाडू कमजोर प्लयेर था इसलिए ) घोडा और मैं दूसरी टीम के सदस्य ! जो भी टीम मैच हारेगी बर्तन माँजेगी और जो टीम जीतेगी वो खाना बनायेगी ! एक दिन वो जीते और एक दिन हम ,कोई बल्ला लेकर नहीं गये थे किसी मोटी लकड़ी से ही ये गेम खेला जाता था !


अब लगता है रानीखेत में ही कितनी शांती और सूकून है तो फिर पांडूखोली में तो डर लगने लगेगा ! जो भी है वो तीन दिन केवल पांच दोस्तों के बीच,कितना मोहक सूकून था प्रकति की गोद में (कभी-२ डरावना भी) ! " हमारे मापदंड हमारी परिस्थितियों के हिसाब से बदल जाते हैं" यही वजह होगी कि उस छोटी सी उम्र में हम उस यादगार ट्रिप पर गये क्योंकी उस समय के मापदंड रानीखेत का जीवन था ! हमलोगों के दसवी पास होने के बाद की ट्रिप थी ये,शुरुआत में कुछ 15-16 लोग तैयार हुए थे और जाते-२ "नाडू" को मनाकर ले जाने के बाद भी केवल पांच ही बचे थे ! "पेरेंटिंग एक बहुत दुर्लभ कला है और हमारी पिताजी जानते थे कि कब ढील देनी है और कब खींच" इसका अहसास अब होता है ! वरना दसवीं के बच्चों को किसी भयावह जंगल और पहाडी पर 3 दिन के ट्रिप पर भेजना सबके बस की बात है भी नहीं !

चूंकी सीमित पैसे मिले थे और आते वक़्त कुकुछीना तक जीप बुक करवानी पडी ,क्योंकी कोई भी जीप वाला जाने को तैयार था नहीं कुकुछीना ,तो हमारे पास केवल इतनी पैसे बचे थे कि द्वाराहाट से जीप ले सकें ! कुकुछीना होते हुए रोड के रास्ते द्वाराहाट कुछ 30-35 किमी. था ! लम्बू के पैर में पिछले दिन मांसपेशी खींच गयी थी तो हम धर्म संकट में फँस गये ! अगर पहाडी रास्ता लिया जाए तो 20-25 किमी पडेगा ये पता था ,लम्बू ने भी मन बना लिया था कि वो बिना सामान के चल लेगा !यानि हम चारों बदल-२ कर उसका सामन ले जायेंगे ! सुबह 11 बजे हमारी वापसी शुरू हुई करीब २ बजे हम द्रोणागिरी ( बोलचाल में "दूनागिरी" बोला जाता है ) माता के मंदिर पहुंचे !

"पवनसुत हनुमान" जब संजीवनी लेकर लौट रहे थे तो "भरतकोट पहाड़ " पर तप में बैठे प्रभु राम के भ्राता "भरत" ने हनुमान जी पर तीर मारा और द्रोण पर्वत का एक हिस्सा यहाँ पर गिर गया इसीलिये यहाँ पर "द्रोणागिरी" माता का मंदिर स्थापित हुआ ! लाखों की संख्या में घंटियां हैं इस मंदिर में !
एक-सवा घंटे के विश्राम के पश्चात तकरीबन साढ़े तीन बजे चलकर हम लोग साढ़े पांच बजे द्वाराहाट पहुंचे और टेक्सी से साढ़े ६ बजे रानीखेत ! फिर ४ किमी चलकर,अगले एक घंटे में गाँव ! चूंकी लम्बू मेरे गाँव का ही था तो उसकी हालत काफी खाराब हो चुकी थी चल-२ कर और इसके बावजूद हम सबको ये आभास हो गया था कि जीवनपर्यंत ये "तीन दिन" स्मरणीय रहेंगे !
जग्गा,घोड़ा ,लम्बू और नाडू की याद में लिख ही डाला :) ,सब हैं कहीं न कहीं इस जग में पर मोती कभी-२ बिखर भी जाते हैं समय के थपेड़ों के सामने !आखिर बात तो सच ही है कि "बारीश और नोस्टाल्जिया(Nostalgia) में कोई महीन रिश्ता जरूर होता है,बारीक सा ! "

जगजीत सिंह की ग़ज़ल की दो लाईनें, आपको भी छूं जाए कौन जाने ?


एक पुराना मौसम लौटा ,याद भरी पुरवाई भी !
ऐसा तो कम ही होता है वो भी हो तन्हाई भी !!