बारीश और नोस्टाल्जिया(Nostalgia) में कोई महीन रिश्ता जरूर होता है,बारीक सा !
मुझे तो ऐसा लगता है.. इसीलिये लिखने बैठ गया हूँ आज !
वो रात घनघोर बारीश की ही थी .. पांच दोस्त किसी भयावह जंगल में बने उस अँधेरे कमरे में,"मिट्टी तेल" के दीए के सहारे,अँधेरे से युद्ध विराम के लिए संघर्ष कर रहे थे ..पूरा कमरा धुंए से भरा हुआ और 15-16 साल के ये पांच किशोर उन गीली लकड़ियों में मिट्टी-तेल डाल-२ कर चूल्हे को गरम रखने की भरसक कोशिश में व्यस्त ! रोड से कुछ १०-११ किमी. चढ़ाई करते हुए आप ऐसे सुनसान रास्तों से गुजरते हैं जहां पर दिन के १२ बजे भी अन्धेरा होता है,
अपने जीवन में पहली बार किसी रोड को खत्म होते देखा था यानी रोड का , घुमावदार सड़क मुड कर वापस खुद में समा जाती है .. जगह को कुकुछीना बोला जाता है ! कुकुछीना से ही पहाड़ पर कुछ

अज्ञातवास के समय कौरव ,पांडवों का पीछा करते-२ कुकुछीना(कौरवछीना ) पहुंचे और वहाँ से पांडवों ने इस जंगल से होते हुए इस पहाडी की शीर्ष पर वक़्त गुजारा,इसी वजह से ये

उस पहाडी के शीर्ष पर बने उन दो कमरों में से एक कमरे की चाभी देकर शर्मा जी ने हमको पानी का इंतजामात दिखाया..एक कुआ था गहरा सा,दिखने में अच्छा जरूर लगता था मगर बरसाती पानी इकट्ठा था और उसमे भी बरसाती कीड़े .. पहली बार को तो लगा कि पीने वाले पानी का कुआ अलग होगा पर शर्मा जी बोले की यहाँ से कुछ 14-15 किमी दूर जंगल में "भरतकोट" पहाडी की तरफ पीने का साफ़ पानी है ! दूरी और जंगली रास्ते की वजह से ज्यादातर लोग इस पानी को ही छानकर और उबालकर पीते हैं ..पहली बारगी तो इंसान देख के उल्टी ही कर दे .. पर जटिल अनुभव,भविष्य को सुन्दर तरीके से देखने का मौक़ा भी देता है हमारे रवैये पर सब निर्भर है !
शर्मा जी के प्रस्थान के बाद सबसे पहला काम जो किया,वो था लकड़ी ढूंढने का ताकि रात को खाना बना सकें,अगस्त के महीने में दिसम्बर वाली ठण्ड थी यहाँ ! पहाडी की ऊँचाई का अंदाजा लगाईये कि 1998 में जब सारे बड़े शहरों पर FM रेडिओ नहीं आता था उस पहाडी पर वो 300 रूपये का FM रिसीवर (कश्मीरी गेट बस अड्डे पर आजकल ये काला छोटा डिब्बा सिर्फ 60 -70 रूपये में मिलता है ) ही हमारा एकमात्र मनोरंजन का साधन था ! वैसे इसके अलावा हम पाँचों ही बहुत प्रसिद्ध बेसुरे गायकार भी थे !

"पानी बनाकर" (अर्थात छानकर ,उबालकर ,फिर छानकर ) हम लोग चूल्हे में आग जलाना शुरू हुए कि आग जल ही न दे ..रोज की बरसात की वजह से लकडीयां गीली थी और हमारे पास लिमिटेड मिट्टी का तेल था .. एक माचिस का डिब्बा तकरीबन पूरा ख़त्म होने वाला था तब जाकर चुल्हा गरम हुआ और हमारी रसोई शाम के ८ बजे से साढ़े बारह बजे रात तक कुल पांच लोगों का भोजन बनाती रही ! दीए ने काफी साथ दिया मगर आपको रात्री के पहर में उस कक्ष में किसी को भी सू सू आ जाए तो क्या उपाय? सोचियेगा ? दीया तो बाहर की हवा में जलेगा भी नहीं ..
माचिस कि तिल्ली जला-जला कर एक दोस्त की नेचरस कॉल के उपाय हेतु पाँचों दोस्त बाउंड्री के बाहर जाते उस रेडियो को साथ लेकर,ताकि डर कम लगे,रात्री के २ बजे मं

अगली सुबह चाय तक नहीं बना सके थे पाउडर वाले दूध से और हम सब ये प्रार्थना कर रहे थे की " शर्मा जी वक़्त पर आ जाएँ औ भगवान् करें की वो बीडी-सिगरेट पीते हों " ,शर्मा जी करीब 12 -1 बजे पहुंचे और पहली बार किसी की बीडी पीने की आदत पर हमको इतनी खुशी हुई ,वरना 10 -12 किमी. नीचे जाकर माचिस लाना उफ़ क्या हाल होता !
बर्तन मांजना एक कष्टकारी काम था और इसका सरल उपाय ये निकाला गया कि टेनिस कि बॉल से

अब लगता है रानीखेत में ही कितनी शांती और सूकून है तो फिर पांडूखोली में तो डर लगने लगेगा ! जो भी है वो तीन दिन केवल पांच दोस्तों के बीच,कितना मोहक सूकून था प्रकति की गोद में (कभी-२ डरावना भी) ! " हमारे मापदंड हमारी परिस्थितियों के हिसाब से बदल जाते हैं" यही वजह होगी कि उस छोटी सी उम्र में हम उस यादगार ट्रिप पर गये क्योंकी उस समय के मापदंड रानीखेत का जीवन था ! हमलोगों के दसवी पास होने के बाद की ट्रिप थी ये,शुरुआत में कुछ 15-16 लोग तैयार हुए थे और जाते-२ "नाडू" को मनाकर ले जाने के बाद भी केवल पांच ही बचे थे ! "पेरेंटिंग एक बहुत दुर्लभ कला है और हमारी पिताजी जानते थे कि कब ढील देनी है और कब खींच" इसका अहसास अब होता है ! वरना दसवीं के बच्चों को किसी भयावह जंगल और पहाडी पर 3 दिन के ट्रिप पर भेजना सबके बस की बात है भी नहीं !
चूंकी सीमित पैसे मिले थे और आते वक़्त कुकुछीना तक जीप बुक करवानी पडी ,क्योंकी कोई भी जीप वाला जाने को तैयार था नहीं कुकुछीना ,तो हमारे पास केवल इतनी पैसे बचे थे कि द्वाराहाट से जीप ले सकें ! कुकुछीना होते हुए रोड के रास्ते द्वाराहाट कुछ 30-35 किमी. था ! लम्बू के पैर में पिछले दिन मांसपेशी खींच गयी थी तो हम धर्म संकट में फँस गये ! अगर पहाडी रास्ता लिया जाए तो 20-25 किमी पडेगा ये पता था ,लम्बू ने भी मन बना लिया था कि वो बिना सामान के चल लेगा !यानि हम चारों बदल-२ कर उसका सामन ले जायेंगे ! सुबह 11 बजे हमारी वापसी शुरू हुई करीब २ बजे हम द्रोणागिरी ( बोलचाल में "दूनागिरी" बोला जाता है ) माता के मंदिर पहुंचे !
"पवनसुत हनुमान" जब संजीवनी लेकर लौट रहे थे तो "भरतकोट पहाड़ " पर तप में बैठे प्रभु राम के भ्राता "भरत" ने हनुमान जी पर तीर मारा और द्रोण पर्वत का एक हिस्सा यहाँ पर गिर गया इसीलिये यहाँ पर "द्रोणागिरी" माता का मंदिर स्थापित हुआ ! लाखों की संख्या में घंटियां हैं इस मंदिर में !
एक-सवा घंटे के विश्राम के पश्चात तकरीबन साढ़े तीन बजे चलकर हम लोग साढ़े पांच बजे द्वाराहाट पहुंचे और टेक्सी से साढ़े ६ बजे रानीखेत ! फिर ४ किमी चलकर,अगले एक घंटे में गाँव ! चूंकी लम्बू मेरे गाँव का ही था तो उसकी हालत काफी खाराब हो चुकी थी चल-२ कर और इसके बावजूद हम सबको ये आभास हो गया था कि जीवनपर्यंत ये "तीन दिन" स्मरणीय रहेंगे !

जगजीत सिंह की ग़ज़ल की दो लाईनें, आपको भी छूं जाए कौन जाने ?
एक पुराना मौसम लौटा ,याद भरी पुरवाई भी !
ऐसा तो कम ही होता है वो भी हो तन्हाई भी !!
6 comments:
अच्छा संस्मरण है | मुझे अपनी महासरताल यात्रा याद आ गयी | अठारह - बीस किलोमीटर चढ़ाई करके जब महासरताल पहुंचे थे तो जगह देखकर सारी थकान दूर हो गयी | पहाड़ की चोटी पर दो बिलकुल हमशक्ल ताल , बादलो के बिना साफ़ नीला आसमान और चारों तरफ दूर तक फैला हरा मैदान, ये सब कुछ मेट्रो में कहाँ | कितने पास थे हमारे बचपन में नज़ारे न ? अब तो बस फोटो डाउनलोड करते हैं|
couldn't agree more with Neeru!... "पहाड़ की चोटी पर दो बिलकुल हमशक्ल ताल , बादलो के बिना साफ़ नीला आसमान और चारों तरफ दूर तक फैला हरा मैदान, ये सब कुछ मेट्रो में कहाँ".... shaayad this is why I use to travel much in hills...
कितने पास थे हमारे बचपन में नज़ारे न ? अब तो बस फोटो डाउनलोड करते हैं..... will not agree with this... ab bhi voh hi nazar hai bachpan mein jo tha...
aaur likhakh ke liye....
badhiya likha hai.... yeh kehne ke zaroorat bhi hai kya... magar ek baat hai.. yeh post thoda aaur chotta ho sakta tha... at least for a person like me it took a very long time to read through :D....
जी रहे हो तुम लोग जिंदगी को......ओह बेचुलर लाइफ.......मुझे याद आ गया हम पांच दोस्त भी मसूरी-आगरा ट्रिप पे भी गए थे .....फिर एक बार बाइक लेकर कुल्लू मनाली .......अब तो गाडी लेकर जाते वक़्त भी थकान होती है .........
तब इतने कैमरे नहीं होते थे....न उस वक़्त हम उस वक़्त की वेल्यू समझते थे ....
बर्तन मांजना......ओर टेनिस की बोल से खेलना ......ओह......
Bilkul sahi kaha barish aur Nostalgia ka rishta to he ..... me aur meri family har saal barish k mosoum me lonaval khandala jate the.....
tum lucky ho ki tumko itani sunder jagah apne friends k sath ghumne ka moka mila ....me to mumbai me pali badi hu islie aaj tak pahad pe chota sa ghar, kuve ka pani in sab ka ehesas nahi kiya...... bohot suhani yadein he ....aur achi bat ye ki tumne is ko apne camere me kaid kar li.....
Sach kaha
हमारे मापदंड हमारी परिस्थितियों के हिसाब से बदल जाते हैं
तुम्हारे ऐसे संस्मरण मुझे कहानी से लगते हैं...मुश्किल है विश्वास करना क्यूंकि जिस दुनिया से मैं आती हूँ वहां ऐसी उम्र में ऐसा जी पाना असंभव सा लगता है .बहुत ही secure और protected माहौल. एक ही दुनिया में रह कर भी हमारे परिवेश कितने भिन्न हो सकते हैं इस बात का एहसास हुआ इसे पढ़ कर.यकीनन interesting अनुभव है...और दोस्तों के साथ इन विषम परिस्थितियों में...अजीब से हालत face करना भी...यादगार बना देता है ऐसे पल.
Nice story
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