तस्मै श्री गुरूवै नम: !!

on Friday, August 28, 2009

        काफी समय से मस्तिष्क के किसी कोने में ये विचार था कि गुरू यानि शिक्षक या अधिक देशी भाषा का उपयोग किया जाय तो मास्साब के  बारे में कुछ कहा जाय कुछ कलमबद्ध किया जाय ! चूँकि शिक्षक दिवस नजदीक है तो विचार  की ये उधेड्बुन सिमट नहीं पा रही सो मैं फिर आपसे साक्क्षातकार करने आ पहुँचा हूँ गुरू शब्द  की महिमा को वर्णित करने ! 

      पहला दिन था  मैं ट्यूशन लेने के लिये पहुँचा,शिक्षक से भिज्ञ भी नहीं था मैं,बस ये जानता था कि उनका नाम श्री महेश तिवारी हैं और वो मेरे बडे भाई के स्कूल में पढाते हैं ! उनके घर पहुँचा तो शिक्षक कम शास्त्रीय  संगीतकार ज्यादा लग रहे थे ! उनके 12 X 10  के कमरे में एक छोटी सी चारपाई और उस पर तबला ,एक हार्मोनियम बहुत सारी संगीत से सम्बन्धित पुस्तकें और एक टेप रिकार्डर और काफी सारी कैसेट,ये सारा सामान पडा  था ! एक अजीब सी परम्परा थी यहाँ पर , सारे छात्र तब तक  चुपचाप से बैठ जाते थे जब तक कि सवा आठ न बज  जाये ! तिवारी सर आंखें  बन्द किये शास्त्रीय संगीत में मुग्ध उसी धुन पे तबला या फिर हार्मोनियम बजा रहे  होते जो धुन टेप रिकार्डर पर चल  रही होती थी ! तिवारी सर की तल्लीनता देख कर ये बात जरूर समझ आती थी कि वो परालौकिक आनन्द की अनुभूति कर रहे हैं इस लोक की करनी और कर्ता से उनको कम से कम उस वक्त कोई भी फर्क नहीं पडता था ! 

       कई दिनों से गणित में गुणनखंड (factors) के आखिरी अध्याय में फँसा हुआ था मैं ! शेषफल प्रमेय (Remainder theorem ) का तोड निकालने की बहुत कोशिश कर चुका था मगर हर बार नई  परेशानी आ जाती थी ! ये सौभाग्य था या नहीं कि टयूशन के पहले दिन ही शेषफल प्रमेय पर कक्षा चल रही थी ! मैं तो तिवारी सर की सादगी से बहुत प्रभावित हुआ और जैसे ही उन्होने पढाना शुरू किया तो इतने दिनों कि मेरी परेशानी यनि शेषफल  प्रमेय का ऐसा निदान दिया कि मैं कभी भी नहीं भूल सकता था ! बात यहाँ पर केवल एक शिक्षक की नहीं है वरन एक ऐसे इन्सान की है जो कि आपको सही राह भी दिखाये ,जो स्वयं में बहुत अच्छा इंसान भी हो ,जो आपको सही मार्गदर्शक की तरह सच्चे पथ पर अग्रसर भी करे ! तिवारी सर सबके परिजनों से मिलते ,बच्चे की अच्छी बुरी-बातों पर ध्यान आकर्षित करते ! 

     उनकी निगरानी केवल उस एक् घंटे के अंतराल पर ही नहीं  रहती  थी जब  कि वो पाठन कराते थे ,मगर घर में हम कितना पढते हैं,क्या पढते हैं इस सब पर भी निगरानी रहती थी ! पापाजी से उस काँलम पर हस्ताक्षर करवाने होते थे जहाँ हमारे  सुबह उठने से लेकर रात्री सोने तक का विवरण होता था !

    सबसे प्रभावी बात जो मुझे लगती है वो यह थी कि ज़ितना विश्वास  सर को हमारी काबिलियत पर होता था वो हमारे खुद के विश्वास से कहीं अधिक होता था और कहीं ना कहीं ये प्रबल इच्छा रहती थी कि उनके विश्वास के लिये ही सही कुछ कर दिखाना है  “ :)


   दो  वाक्य हमेशा याद रह्ते हैं सर के !

o        यार तुम लोग सफल हो जाओ तो मुझे तो बस एक बताशा खिला देना बस !

o        मेहरा 100 नम्बर की मत सोचो 120 नम्बर की सोचो तब कहीं 100 नम्बर आयेंगे !


 मैने हास्यासपद एक दिन पूछ ही लिया कि सर 100 नम्बर के बोर्ड के पेपर में 120 नम्बर की कैसे सोच सकते हैं ?? उनका  कहना था विकल्प (optional) वाले प्रश्नों  को भी अगर मिला लिया जाये तो पूरा पेपर असल में तो 150 नम्बर का होता है :) !

        हर दूसरे सप्ताह के अंत में  सारे छात्रों के लिए एक परीक्षा होती  और सर्वश्रेष्ठ 3 छात्रों को कुछ न कुछ पारितोषिक  दिया जाता ! स्वच्छ प्रतियोगिता की जो भावना सब में डाल दी जाती थी वो भावना जीवन पृयन्त काम आयेगी ! तिवारी सर का हमेशा कहना था कि प्रतियोगिता और द्वेष में बहुत अंतर है ! प्रतियोगिता में रह्ते हुए हम सबको साथ लेकर चल सकते हैं मगर द्वेष में हम एकाकी होकर नकारात्मक उर्जा से कुंठित रह्ते हैं !

        स्कूल की शिक्षा और कालेज के दिनों में एक स्पष्ट अंतर नजर जो  आता है तो वो ये कि स्कूल के दिनों के वो प्रेरक शिक्षक कालेज पहुँचते हुए गायब से हो जाते हैं ! कम से कम मेरा अनुभव तो यही बोलता है ! स्कूल के समय में तिवारी सर जैसे कई गुरूजन हुए जैसे नन्दनी मैडम ,अग्रवाल सर ,शर्मा सर ,कडाकोटि सर और चौधरी सर जिनके विचार आज भी प्रभावित करते हैं ! मगर ऐसे शिक्षक आगे न मिले !

  कुछ छात्रों को एक दिन तिवारी सर समझा रहे थे कि खुद को कम महसूस करोगे तो कम ही रहोगे,खुद को शेर समझो , हर इंसान किसी चीज को दो तरह से पा सकता है , या तो उसमें सम्बन्धित गुर हो या फिर वो मेहनत करे उस गुर को हासिल करने के लिये ! तो एक मनोधारणा तो बना ही लो कि आप सब सर्वश्रेष्ठ हो लेकिन ध्यान रहे आप अहंकारी न हो जाओ ! कहीं न कहीं ये कथन पथप्रदर्शक  बना हुआ हमेशा उन पलों में मेरी मदद करता है जब मेरी उर्जा कम होती है!मुझे लगता है कि ये सौभाग्य ही था कि ऐसे गुरु हमें मिले जिन्होंने सही मायने में कुम्हार की तरह कच्चे घडे का आकार देने का कार्य किया ! शिक्षा का मतलब तिवारी सर के लिये केवल अच्छा पेशेवर बनना नहीं था बल्कि एक अच्छे व्यक्तित्व और चरित्र का निर्माण सर्वोपरी था ! 

     तिवारी सर की गुरू दीक्षा और प्रेरणा का ही ये परिणाम रहता है कि एक साधारण छात्र / छात्रा बोर्ड के पेपरों में कमाल का परिणाम देने में सफल हो जाता हैं और मैं खुद उनकी इस गुरू दीक्षा का  भोगी हूँ :) !

    तस्मै श्री गुरूवै नम: वाक्यांश असल में तिवारी सर सिद्ध करते आये हैं !

 आज तिवारी सर से मिलो तो सहर्ष ही सम्मान में उनके आशिर्वाद लेने में जो हार्दिक खुशी होती है वो अवर्णीय है और वो अपने "कुम्हार" रूप में नये घडों को आकार देने के मुहिम में सदैव की तरह अडिग होकर कार्यरत रहते हैं ! 

   आप इस लेख को पढने के बाद उन सभी गुरूओं के लिये कृतज्ञता मह्सूस करें जो आपके जीवन में बहुत अहम थे जिन्होनें आपके व्यक्तित्व और चारित्रिक निर्माण  में कुम्हार के समान योगदान दिया ! 

आप सभी को शिक्षक दिवस की ढेर सारे शुभकामनायें !!


Darshan Mehra

darshanmehra@gmail.com

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उमंग

on Thursday, July 23, 2009


ये गीली बारिश , ये नम  हवायें !! 
ये क्षण है मुदुल ,बाँह फैलाये !! 

बिजलियाँ बिखेरते बादल कहें ,   
तू गम को समा जा खुद के भीतर !!   

झुले की रस्सी सी बारिश की डोरी, यह पुकारे ! 
आनन्द को नये रंग में तू परिभाषित कर !!    

मैं मधुर स्वर में रिमझिम रिमझिम गीत सुनाउँ ,
ग्रीष्म ऋतु की तपिश को शून्य तक पहुँचाउँ  !!  



तू सीख,बडे चल ,कठिनाईयों से निडर चल ! 
जीवन की बारिश का तू  विश्वास कर !!

तू बरस जा इन शोख नदियों को द्रवित कर !
तू गरज, जहाँ की व्यथा पर इमदाद कर !! 

खुशी के गीत गा , तू प्रेम के राग सुना ! 
तू द्वेष भगा , दंभ के पर्वत को लाँघ जा !! 

इस क्षण की मदहोशी को तू  कैद कर !
बाँह पसार और इस जीवन में  उमंग भर !!    

ये गीली बारिश ! ये नम  हवायें !! 
ये क्षण है मुदुल ,बाँह फैलाये !! 

Darshan Mehra

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Happy New Year Sir !!

on Saturday, June 20, 2009

दिन मंगलवार,30 दिसम्बर 2008:-

बस नo 492 , नेहरू प्लेस से नोएडा सैo 22 , मैं बस पकडने के लिये भाग ही रहा था की बस निकल गयी ! नया बाँस के बस स्टैंड पर खडा होकर मैं सोच रहा था कि मुझे प्रयास की रात की क्लास लेते हुए पूरा एक साल हो गया है ! रात के तकरीबन सवा दस बज रहे थे और उपर से दिसम्बर का यह महीना , बहुत ही सर्द रात थी यह ! इस बस स्टैंड से नजारा कुछ ऐसा होता है कि सामने सडक के दूसरी तरफ देशी दारू के ठेके पर लोग शराब अथवा जीवन के नशे में अनर्गल बातें कर रहे होते हैं ,उसके सामने एक चिकन का ठेला जो कि बडे से कुडेदान के ठीक बायीं ओर है ,ठेले के नीचे कुछ आवारा कुत्ते इस इंतजार में अपनी लार तपका रहे हैं कि शायद कोई भला मानुष कुछ बचा हुआ गोश्त और चबाई हुई हड्डियाँ उनकी ओर सरका दे ! बहुत सारे रिक्शे वाले कंबल लपेटे हुए ग्राहकों के इंतजार में अपने रिक्शे में बैठे हैं ! चूँकि मैं करीब एक साल से इसी जगह से बस या रिक्शा लेता हूँ तो कुछ रिक्शा वाले मुझे जानने भी लगे हैं ! मैं सोच रहा था कि लोग कहते हैं कि नया बाँस नामक यह जगह रात को सुरक्षित नहीं है परंतु मेरे साथ एक साल में तो कोई दुर्घटना नहीं हुई !
यही सब सोचते हुए जब थोडी देर हो गई, तो मैने निर्णय लिया कि रिक्शा लेकर घर चला जाय ! अक्सर प्रयास की कक्षा के बाद समय मिलता है तो मैंने मोबाईल निकाल कर एक नo 93180…. डाँयल किया ही था कि लगा मेरे मोबाईल को शिकार समझकर जैसे कोई तेजी से उसकी तरफ झपटा !! और देखते ही देखते दो मोटर-साईकिल सवार कोहरे और अंधेरे में गुम से हो गये ! मुझे कुछ भी नहीं समझ आया कि कैसे अपने क्रोध और आवेश को बाहर निकालूँ ! सामने रिक्शे वाला जो कि अभी तक इस सब से अनभिज्ञ था उसे जब मैंने ये बताया तो वह गाली देने लगा उन चोरों को, मै तो जैसे समझ ही नहीं पा रहा था कि क्या कहूँ और क्या करूँ ! दिल्ली-राजधानी क्षेत्र में यह मेरा दूसरा मोबाईल फोन चोरी हुआ ! वर्ष 2008 के आखिरी दिनों में ऐसा होगा ये नहीं सोचा था ! घर पहुँच कर सबसे पहले Airtel customer care पर सिम ब्लाक करवाने के लिये जूझना पडा ! Airtel customer care की यह हालत पहले मह्सूस नहीं हुई कभी पर जब सेल्वा ने बोला कि Airtel Sucks !! और मेरा खुद का यह कट्टु अनुभव तब सत्य से सामना हुआ ! सच कहूँ तो पिछले कुछ दिनों से मैं इस बात से बहुत खुशी मह्सूस कर रहा था कि वर्ष 2008 बहुत ही खूबसूरत गुजरा है ! तो साल के आखिरी दिन से पहले की यह रात मुझे इशारा कर रही थी कि संतुलन स्वयं अपना रास्ता ढूँढ लेता है ! किसी तरह Airtel में अपने फोन नo को ब्लाक करवाने के बाद 30 दिसम्बर का ये दिन बीत ही गया !
दिन बुधवार,31 दिसम्बर 2008 :-
अगली सुबह से मेरी ये जद्दोजहद शुरू हुई की कैसे भी वही मोबाईल नम्बर आज ही लेना है ताकि नये साल की कई wishes रह ना जाय ! उपर से घर वालों को दूसरा मोबाईल चोरी होने की खबर(पह्लले मोबाईल चोरी के पश्चात ही ये वाला मोबाईल आया था J ) देकर मैं उनका यह भ्रम भी नहीं तोडना चाहता था कि मैं जिम्मेदार हूँ , गैर जिम्मेदार नहीं ! सुबह आफिस आकर मेरी ये कवायद शुरु हुई ! मैने आशिष को बोला कि मुझे अपने साथ बाईक पर क़रोलबाग ले चल ताकि नये सिम के लिये application दे सकुन और फिर से कोई नया मोबाईल खरीद सकूँ ! आज के दौर में Plastic Money यनि credit cards के होने से ये फिक्र तो नहीं रह्ती कि आपके पास पैसे है या नहीं ! सो मैं और आशिष करोलबाग के Airtel Customer Care Center पहुंचे तो उन्होने पैन कार्ड की दो फोटोकापी और 2 फोटो माँगी ! Center पर फोटोकापी मशीन होने के बावजूद वो लोग बाहर से करने को बोलते है ! करोलबाग की मार्किट में भटकने के पश्चात किसी तरह सारे दस्तावेज देकर जब सिम की बात आई तो उन्होने सिम तो दे दिया मगर ये बोला कि शाम के 4 बजे तक active हो जायेगा ! फिर एक ईलक्ट्रानिक्स स्टोर से Credit Card की plastic money से एक सस्ता सा नोकिया मोबाईल खरीदा ! इस सारे काम में कम से कम 2 घण्टे तो लग ही गये ! जिस तरह से सरकारी आफिस में जाने के पश्चात हम में से हर एक इंसान दुखी हो जाता है वहाँ का वातावरण इतना ज्यादा नकारत्मक और कष्ट्कारी होता है वैसी ही भावनायें महसूस कर रहा था मैं ! जबकि मैं किसी भी सरकारी आफिस में नही गया था ! आफिस पहुंचने के बाद सव लोगों की दया भाव और सांत्वना वाली नजरें और भी दुखी कर रही थी ! इंसान इतना दुखी होता नहीं जितना कि आपके तथाकथित शुभचिंतक आपको दयापात्र बना कर दुखी कर देते हैं ! उपर से Airtel वाले जो कि 4 घंटे होने के बावजूद मेरा सिम Active नहीं कर रहे थे ! वैसे बात सोचने कि ये भी है कि जब मोबाईल फोन नहीं होते थे तो जिन्दगी तब भी इतनी ही खुशीयों भरी थी और तब भी हम लोग सबसे जुडे हुए होते थे ! आज मोबाईल के बिना ऐसा लगता है जैसे जिन्दगी थम सी गयी है ! खास बात ये थी कि 31 दिसम्बर होने की वजह से मैं नहीं चाहता था कि अपने दोस्तों या चाहने वालों से नये साल की शुभकामनायें लेने या देने में एक फोन का न होना बाधा बने !
5 बज चुके थे और मेरा सिम चालू नहीं हुआ था ! कस्ट्मर केयर में कई बार कॉल करने के बाद मुझे बताया गया कि मेरे बिल का भुगतान नहीं हुआ था ! जबकी आखिरी तिथि अभी दूर थी तुरंत इंटरनेट से बिल जमा करवाया मगर अभी भी मेरा नया सिम चालू नहीं हुआ था ! पूरा दिन मेरा खराब हो गया था और अब मेरा सब्र का बाँध भी डगमगाने लगा था ! मैंने पूनः कस्टमर केयर पर बात जो की मैं सुबह से कई बार कर चुका था तो मुझे बताया गया की चूंकी मैंने अपना पुराना सिम ब्लाक करवा दिया था तो इसलिए नया सिम भी ब्लाक है और उसको वहीं से चालू किया जा सकता है जहां से सिम खरीदा गया है ! आफिस में मन तो लग नहीं रहा था ऊपर से ये पता चला कि करोलबाग का सेण्टर 7:30बजे बंद हो जाएगा ! अब तक 7 बज चुके थे किसी तरह मेट्रो पकड़ कर मैं 7:15 बजे तक करोलबाग के कस्टमर केयर सेण्टर पहुंचा ! कुछ हैरान सा कुछ परेशान सा बल्कि ये कहो की बहुत परेशान सा मैं कस्टमर केयर एक्जीक्यूटिव को अपनी कहानी सुनाई !वो एक तकरीबन 30-32 साल की युवती थी ! उसने मुझसे सांत्वना प्रकट की
और मुझे आश्वाशन दिया की " सर आपका फोन इस साल में ही अर्थात आज ही चल जाएगा " मेरी व्याकुलता और परेशानी को समझते हुए मेरे लिए पानी मंगवाया ताकि मेरा ताप कुछ कम हो सके :) ! दिन भर की जद्दोजहद और सिरदर्द के बाद कुछ तो राहत मिली वरना पूरा दिन कस्टमर केयर से लड़ने व बहस करने में ही गुजर गया था ! मेरा मूड काफी खराब और परेशानी पुर्ण था ! उस युवती ने 5-7 मिनट के पश्चात मुझे बताया की "आपका फोन आधे घंटे में चल जाएगा सर" मैंने पुनः पुछा की फिर से ऐसा न हो की मेरा फोन ब्लाक ही रह जाय ! वो युवती बोली की सर आप कस्टमर केयर सेण्टर का फोन नो. ले लीजिये चाहे तो वरना आप मेरा न. ले लीजिये :) !
मैंने उसकी अनुरोध पर विश्वास करते हुए अपना धन्यवाद प्रकट किया और अपनी सीट से उठा और चलने को बना ही था की पीछे से उस युवती की आवाज आयी " Happy New Year Sir" "आपका नया साल शुभ हो " ! उस क्षण के लिए ऐसा महसूस हुआ जैसे पूरे दिन भर का बुरा अनुभव ख़त्म हो गया ! जैसे हमें कभी-कभी किसी अनजान इंसान से मिलने के बाद अपार खुशी होती है ! बाद में मेट्रो से आते हुए मैं बस यही सोचता रहा की कभी-कभी हम किसी अनजान इंसान से भी काफी कुछ पा जाते हैं और काफी कुछ सीख भी जाते हैं ! ठीक आधे घंटे में मेरा फोन चल गया और घर (D-51) आकर मैंने चौहान और रैम्बो को उस युवती और आज के दिन का वर्णन किया और उनको ये भी बताया की मेरे नए साल की पहली शुभकामना भी मुझे मिल चुकी ! और मुझे यकीन है की मेरा नया साल अवश्य शुभ होगा !!


Darshan Mehra
darshanmehra@gmail.com

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ज़ीवन प्रयोग ...

on Friday, March 13, 2009


मैंने सुना हुआ था कि जब इंसान की मृत्यु होती है तो उसका शरीर नीला पडने लगता है !यही सोचकर मैंने लेटे हुए ही अपने हाथों की तरफ देखा तो मेरी घबराहट काफी बढ गयी ! क्योंकि मुझे मेरे हाथ नीले नजर आ रहे थे ! पर बहुत ध्यान लगा कर सोचा तो समझ आया कि आज तो होली है तो हाथों में रंग लगा हुआ है शायद ! मगर फिर अपने शरीर को देखा तो समझ आ ही गया कि मौत करीब है शायद वरना शरीर भी नीला क्यों नजर आता ? यह कोई कहानी नहीं है मगर एक दुर्घटना का विवरण है !
10 मार्च यानि होली की पहली रात को मैं और अरूण, भाँग के इंतजामात के लिये रिक्शे वाले से लेकर, पान वाले से तक पूछ रहे थे कि सरकारी भाँग का ठेका कहाँ है ? क्योंकि रैम्बो ने अन्दर की खबर दी थी कि सेक्टर् 15 में भाँग मिलती है ! हम लोग कोशिश कर रहे थे कि हमारे चेहरे पे किसी भी किस्म कि सिकन न नजर आ जाये !मंद-मंद मुस्कुराहट हम दोनो कि चेहरों पर खिली हुई थी जैसे कि किसी रणभूमि फतह की तैयारी चल रही हो और हमको पता हो कि विजय क सेहरा हमारे ही माथे चढेगा !
हमको जब यह पता चला कि भाँग के भी सरकारी ठेके होते हैं तो मेरे दिमाग में तो यह खयाल आ रहा था कि हम कई दिनों से ढूँढ रहे थे मगर यह तो बहुत आसानी से हासिल हो गया ! यहाँ पर यह बताना बहुत जरूरी है कि हम लोग यानि डी-51 के योद्धा केवल एक बार इस भाँग पीने के प्रयोग से गुजरना चाहते थे वरना हम भँगेडी नहीं हैं :) ! आखिरकार हमको भाँग का ठेका तो मिल गया मगर पता नहीं था कि कितनी मात्रा में लेना चाहिये और कैसे ! एक अजीब सी झिझक थी दुकानदार से पूछने के लिये मगर थोडी देर सारे ग्राहकों को ध्यान से देखने के बाद हमको भी समझ आ गया कि हाथों कि मेंहन्दी के समान यह हरे से पत्तों का पिसा हुआ मसाला ही भाँग है जो कि 20-20 रू में एक ढेली मिल रही थी ! लोगों को देखने के और सोच विचार् के पश्चात हमने रू 50 की भाँग ली और खुशी से रैम्बो को फोन पे बताया ! हमेशा की तरह रैम्बो की असंतुष्ट आत्मा नही मानी और् उसके कहने पर हमने फिर से रू 50 की भाँग ले ली ! एक अंकल जी से पूछा कि भाँग कैसे खाते हैं तो उन्होने बहुत ही दयालु व सरल भाव से बताया कि मैं तो भाँग को ऐसे ही खा जाता हूँ और उसके पश्चात पानी पी लेता हूँ यह तरीका मुझे तो अच्छा नहीं लगा किसी भी तरह से उपर से हँसी और आ गयी इस बात पर :) !

घर पहुँचकर ठंडाई का इंतजाम करने के बाद हमारा भाँग-मोह बढता चला गया ! भाँग का भोग लगने की तैयारी बेहद दिलचस्प हो रही थी ! इतनी तैयारी डी-51 में या तो क्रिकेट मैच देखने के लिये होती है या फिर जन्मदिन का केक काटने के लिये ! दूसरी सुबह यानि होली वाले दिन हम लोग उठे भी नहीं थे अभी तक मगर देखा तो सेल्वा अपने टूटे (Fractured) हुए पैर के प्लास्टर पर पाँलीथीन बाँधकर होली खेलने के लिये पूरी तरह से तैयार था ,सेल्वा का ये जज्बा काबिले-तारीफ था , इंसाह-अल्लाह !! :) ! डी-51 की होली में हम 5 योद्धाओं (सेल्वा,अरूण रैम्बो,चौहान और मैं (दर्शन)) के अतिरिक्त हमेशा कुछ मेहमान जरूर शामिल होते हैं नीरज ,राज शोभित इस साल की होली के भागीदार थे ! हमेशा कि तरह पानी की निकासी बंद कर दी गई और शूरू हुआ गुलाल,रंग ,गुजिया,मस्ती ,और पानी का दौर ! जब यह दौर शुरू होता है तो मस्ती अपने उच्चतम शीर्ष पर होती है ,हमारे पानी वाले रंगों का स्टाक खत्म हो गया तो पून: केवल पानी वाले रंग के लिये शर्माजी की दुकान पहुँचे ! बहुत देर होली खेलने के बाद भाँग की याद आई :) ! मैंने और रैम्बो ने ठंडाई बनाने का कार्य शूरू किया ! करीब -2 पूरी भाँग डाल दी थी हमने ठंडाई में ! रात को अरूण अपने PDA पर Google पर भाँग पीने के तरीके खोज रहा था ! जो कि केवल एक निरर्थक प्रयत्न था !मगर हम सब लोगों को वाकई नहीं पता था कि कितनी मात्रा में इसका इस्तेमाल किया जाना चाहिये !! 5 ग्लास ठंडाई के जब आपस में टकराये तो बडी जोर से पाँच् आवाजें भी आई - Cheers !!भाँग पीने और उसके उपरांत होने वाले नशे की कल्पना मात्र काफी उत्साहजनक थी ! हम लोग पीने के बाद फिर से बाहर बैठ गये और जब 10-15 मिनट तक कुछ भी नहीं हुआ तो सबका एक ही कथन था वो ये कि कुछ भी नहीं होता भाँग पीकर नशा तो कुछ भी नहीं हुआ मगर इस दौरान मुझे झपकी सी आने लगी तो मह्सूस हुआ कि कुछ असर होने लगा है ! सभी लोग कालोनी के होली महोत्सव के स्थान पर पहुँचे मगर मैंने सबको मना कर दिया ! लेकिन बाद में राज के आग्रह पर मैं भी चला गया ! इस समय तक नशा बहुत अच्छा मह्सूस हो रहा था ! मैं बिना किसी वजह के मुस्कुरा रहा था ! एक बार जब मैंने चौहान और रैम्बो को देखा तो हँसी खुद ब खुद आ रही थी ! अपने आप से नियंत्रण खोते हुए जान कर मैं स्वयं वापस आ गया था और मेरे पीछे-2 सभी लोग वापस आ गये ! डी-51 में प्रवेश करने के पश्चात सबसे पहला काम यह किया कि घर को अन्दर से ताला मार दिया गया! राज और शोभित के जाने के बाद अजय और उसके दोस्त भी चले गये ! मैं एक तरफ तो हँस रहा था और एक तरफ यह बोल रहा था कि Yesssssss मुझे चढ गई finally !! :) अभी तक तो केवल मैंनें हँसना शूरू किया था पर देखते ही देखेते सब लोग हँसने लगे ! बहुत जोर-2 से हँसने लगेगी हम सब और हम पाँचो के बीच अकेला नीरज ! उन कुछ 4-5 मिनटों के लिये तो ऐसा लगा जैसे चाह्ते हुए भी हँसी नहीं रूक रही है और यह अवस्था बहुत ही खूबसूरत है ! यह सब देखकर मैं सबके सामने बोल ही पडा Mission Bhang accomplished !! “ !
यह सबकुछ जितना मनोरंजक लग रहा था अचानक से यह मनोरंजन खत्म होने लगा ! हृदय गति तेज होने लगी शरीर में जकडन शूरू होने लगी ! मुझे कहीं न कहीं ये अह्सास और डर था कि भाँग की मात्रा अधिक हो गयी थी और ये शरीर की जकडन और दिमाग का दर्द उसी का परिणाम था शायद ! मैंने सबसे पहले सबको आगाह किया कि दोस्तो ज्यादा मत हँसो क्योंकि जैसी हालत हम लोग मह्सूस कर रहे थे वह् पहले कभी भी मह्सूस नहीं हुई थी ! लग रहा था जैसे आज दिमाग फट जायेगा , ब्लड प्रेशर ( रक्तचाप) इतना तीव्र था कि मेरे कानों के पीछे एक अजीब सी आवाज सुनाई दे रही थी जैसे बहुत सारी मधुमक्खियाँ भन्ना रही हैं ! कुछ लोगों ने उल्टियाँ करनी शूरू की तो उस पल के लिये मुझे नीरज का ध्यान आया ! एक क्षण के लिये दिमाग को नियंत्रण करके मैंने नीरज को सब लोगों की ओर से माफी माँगी ! मगर इतना भयावह मैंने पूर्व में कभी भी मह्सूस नहीं किया था ! पाँचो चेहरे ऐसे डरे हुए थे जैसे मौत सामने खडी हो ! शरीर और मस्तिष्क का कहीं भी कोई संपर्क नहीं था ! शरीर को इतना कष्ट और दर्द सहते हुए पहले कभी भी नहीं पाया था :( !
किसी तरह से पानी के नल के नीचे पहले अपना सिर धोया फिर चौहान और रैम्बो का ! सेल्वा सो चुका था और अरुण किसी गहरी सोच में था ! मैं एक एक पल को जैसे गिन रहा था कि जल्दी खत्म हो जाये ये सब ! मैं पूरे दो घंटे बाथरूम से लेकर बाहर के कमरे तक घूमता रहा और केवल दो-तीन बातें ही सोचता रहा एक तो यह कि ऐसी बुरी मौत नहीं मरना चाहता था ! घर वाले बार-2 याद आ रहे थे कि अगर ऐसे मर गये तो घर वालों के लिये कितनी शर्म की बात होगी ! दूसरी जो सबसे मह्त्तव्पूर्ण बात याद आ रही थी वो ये कि हमें अपनी हदें पार नहीं करनी चाहिये ! हर चीज का प्रयोग करके ही हम सबक नहीं सीख सकते ! कभी-2 पहला प्रयोग ही भयानक और जानलेवा हो सकता है !
नीरज ने दो-तीन बार बोला कि भैया आप सो जाओ मगर जैसे ही सोने की कोशिश की तो पूरा शरीर नीला नजर आन लगा ! मुझे डर लगने लगा था कि अगर हम पाँचो में से किसी एक की भी मृत्यु हो गयी तो डी-51 का ये प्यारा संसार तो बर्बाद हो जायेगा ! आखिरी मुक्ति का साधन हमेशा कि तरह कुल-देवता की शरण नजर आने लगी तथा आखिरी प्रार्थना कि हे ईश्वर आज हम पाँचों को बचा ले और जीवन में कभी भी ऐसी राह नहीं चुनेंगे ! मेरे हृदय के उपर ऐसा मह्सूस हो रहा था जैसे कुछ आग का गोला जल रहा हो ! जब शरीर के लिये यह कष्ट असहनीय हो गया तो बीच में मैने अरूण और रैम्बो से यह तक पूछ डाला कि क्या हमें एम्बुलैंन्स बुलाना चाहिये ! मगर दोनों ने ही मना कर दिया ! चौहान ने तो माताजी और पिताजी को याद कर लिया था जैसे मृत्यु समीप आ चुकी होगी ! अरूण ओशो कि कोई किताब लेकर पढने की कोशिश कर रहा था मगर ऐसी हालत में पढ पाना सम्भव ही नहीं था सो उसने पढना भी छोड दिया ! एक बात सच है कि कभी भी ऐसा नहीं लगा कि हम लोग धरती पर हैं कहीं धरती और आसमान के बीच में जैसे जान अटकी पडी थी जैसे ! अरूण कह रहा था कि “this is a spiritual phase” .सच में घर के बाहर के वातावरण और अन्दर चल रहे गीत दोनों ही अलग-2 दुनिया के हिस्से लग रहे थे ! परंतु शरीर और मस्तिष्क का इतना विक्षित रूप कभी कल्पना भी नहीं की थी !
किसी तरह 5-6 घंटे में जब मुझे अपनी बाल्कनी से नीचे सडक पर खेलते बच्चों की आवाज सुनाई देने लगी उसके बाद ही मैं यह मह्सूस कर पाया कि शायद हम सब की जान बच गई ! भाँग पीने के अपने इस निर्णय पर बहुत ही शर्म व ग्लानि मह्सूस होने लगी थी ! अगर सच बोला जाय तो अपने जीवन के सबसे बडी गलती बोल सकता हूँ इस घटना को मैं ! भाँग का यह नशा हम सब पर कम से कम 24 घंटे हावी रहा ! एक बात जो कि अवश्यंभावी थी वो यह कि हम पाँचों तो जिन्दगी में ऐसा कभी फिर नहीं करेंगे !
इस लेख को लिखने का मक्सद भी केवल इतना था कि एक संदेश दे सकें कि अपनी हदों को खुद ब खुद पहचानना जरूरी है और ऐसा कोई भी प्रयोग ना करें जो आपको ग्लानि से भर दे या जो आपको उस प्रयोग का विवरण करने तक का मौका न दे ! और जीवन साधारण अवस्था में जितना खूबसूरत है उतना खूबसूरत कहीं नही !


Darshan Mehra



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AID-Delhi 5th Birth Anniversary

on Wednesday, January 28, 2009



छोटी सी कोशिश AID-Delhi के इस 5 साल के सफर को केवल कुछ पंक्तियों में उकेरने की !!

ठान ली है हमने की कुछ कर दिखायेंगे !

राह के पत्थरों को हम हिला देंगे !!


मुल्क के निर्माण के खातिर बढ चला ये कारवाँ !

AID-Delhi के सफर ने बाँध डाला ये शमा !!

हम बढेंगे , हम बनेंगे राष्ट्र परिवर्तन में भागीदार !

मील का पत्थर समझ लो आज का ये पडाव !!



ठान ली है हमने की कुछ कर दिखायेंगे !

राह के पत्थरों को हम हिला देंगे !!



Darshan Mehra
darshanmehra@gmail.com



D-51 ...

on Tuesday, November 18, 2008




समय
रात्रि के तकरीबन 1 बजे ,श्रीमान अमित कुमार जी लौटे ऋषिकेश यानि अपने गृह-शहर से ! अमित कुमार नाम से इनकी पहचान कम ही लोगों से है ! वरना ये संसार इनको “रैम्बो” नाम से ही पहचानता है ! मैं बाहर के कमरे में अर्धनिद्रा में सो ही रहा था कि रैम्बो बोला “ यार अब तो घर भी यहीं लगता है ” !


इस छोटे से वाक्य में काफी गहरा संदर्भ छुपा था ! यह कथन केवल रैम्बो के लिये ही सत्य नही था वरन हम चार अन्य दिग्गजों के लिये भी उतना ही सत्य था ! प्राय: किसी स्थान से लगाव होना वाजिब ही है जब वहाँ पर आप अपने जीवन का कोई भी हिस्सा व्यतीत करें ! लेकिन किसी घर का मतलब उस जगह से ना होकर इसमें रहने वाले लोगों से होता है ! इसीलिये हम घर उसे बोलते हैं जहाँ हमारा परिवार रह्ता है माँ,पिता भाई ,बहन आदि ! परंतु डी-51 एक ऐसा घर है जहाँ रिश्तों के नाम उपरोक्त रिश्तों में से कोई भी नहीं है लेकिन हम पाँच इसे घर ही कहते हैं !
           मैने ज्यादातर लोगों को यह कहते हुए सुना है कि हमारा बचपन जीवन का सबसे ज्यादा खूबसूरत दौर था ! जब खुशी और मस्ती का दामन थामे हुए हम सब अपनी सुन्दर सी, हसीन सी दुनिया में मदमस्त पंछी के समान विचरण किया करते थे ! परंतु मैं एक बात बहुत ठोस आधार पर कह सकता हूँ कि डी-51 के भीतर का जीवन उस हसीन बचपन से भी ज्यादा हसीन है ! अगर डी-51 के अन्दर वह बचपन की मस्ती है तो प्रौढ होने की स्वतंत्रता है ! यहाँ बचपन का अल्हडपन है तो एक-दूजे के लिये गहरे जज्बात हैं ! डी-51 की सर्वश्रेष्ट् बात बताना चाहूँ तो यह कि हम पाँचो किसी भी कार्य या आयोजन के लिये दूसरा विचार (second thought) नहीं देते ! यह एक दूसरे के लिये विश्वास है या हम पाँचों की जन्मजात प्रकृति !
चाहे रात के 2:30 बजे नोयडा की सडकों पर चाय का ठेला ढूँढना हो या आफिस से आने के पश्चात तरण-ताल(swimming pool) जाना हो ! कभी-कभी मुझे लगता है SPICE MALL में रात के 11:15 बजे की फिल्म शो का सबसे ज्यादा हकदार डी-51 ही है, कम से कम मैं तो मूवी-हाल सोने जाता हूँ 150 रू. की नींद :) !
जब से दो अन्ना :) (अरूण व सेल्वा) आये हैं तो हमारे इस घर में रही- सही कमी में पूर्णता आ गयी है ! छोटॆ अन्ना (सेल्वा :) ) ने हमें हर 15 दिन में केक काटना सीखा दिया ! चाहे वो मम्मी-पापा का जन्मदिन मनाना हो या orkut के एक अन्जान profile का जन्मदिन मनाना हो !
                जिन्दगी के साथ नये प्रयोगों के लिये डी-51 हमेशा तैयार है ,मेरे जन्मदिन पर राष्ट्रीय नाटय एकेड्मी में 2 घण्टे 20 मिनट का पकाऊ नाट्क देखना हो या बंगला साहिब के रात्रि-दर्शन ,आन्ध्रा भवन का दक्षिण भारतीय भोजन ,ये सब प्रयोगों का सिलसिला ही था ! नये साल पर पराठें वाली गली के पराठे-लस्सी कोई नही भूल सकता !
                   सही मायनों में डी-51 के सबसे मजबूत स्तम्भ चौहान और रैम्बो ही हैं ! सब्जी से लेकर राशन का अधिकतर इंतजाम ये दो भले मानुष ही करते हैं ! ज्यादातर मतलब की हम लोग भी करते हैं मगर ये दोनो जिम्मेदार मानुष हैं ! सच यह भी है कि ये दोनो के पास समय अनुपलब्धता भी कम होती है ! और डी-51 की कमजोर कडीयां अरूण और स्वयं मैं हूँ ! परंतु हम पाँच मिलाकर एक मजबूत नींव बनाते हैं !
                घरो में आज के व्यस्त दौर में वह पुरानी परम्परा कायम है या नही परंतु डी-51 के भीतर रात्रि-भोजन मिलकर ही होता है ! घर के मुखिया के समान चौहान इस आयोजन का प्रतिनिधित्व करता है ! सामान्यत: अगर कोई सदस्य रात्रि में देरी से पहुँचे तो रात्रि-भोजन 11:30 बजे देर तक भी किया जाता है !पार्वती माता की भागीदारी भी डी-51 की सफलता में महत्त्वपूर्ण है ! वह हमारे घर पर खाना ,बर्तन,झाडू करने आती है और उसके द्वारा बना हुआ भोजन वाकई स्वादिष्ट होता है ! कुछ और लोग डी-51 की सफलता का हिस्सा रहे हैं बल्कि आलोक तिवारी तो शुरूआती दिनों के आधार का मजबूत हिस्सा रहा ! बिष्ट की खामोशी डी-51 में ही टूट पायी :) !
                                 क्रिकेट का फितूर का आलम देखो की विश्व कप से पहले डी-51 के दो महापुरूष एक महीने के लिये टी.वी. ही किराये पर लाने चल पडे (जो कि बाद में हमने खरीद ही लिया) ! होली के दिन की ह्ल्दी ,डिटरजेंट और हरपिक की होली हो या नये साल के दिन के दिल के आकार के गुब्बारे हो या शिमला का family picnic हमेशा जिंदादिली और गहरे रिश्तों का मिसाल है डी-51 !

                         इस लेख को लिखने की प्रेरणा अरूण का वह सपना है जिसने डी-51 को आशंकित कर दिया है ! जिस सपने के अनुसार डी-51 केवल एक साल तक बाकि है और उसके पश्चात सब अपनी-अपनी राह !मैं प्रार्थना करता हूँ कि यह एक साल कई सालों से बडा हो !
इस लेख की गरमजोशी या तो वह समझ सकता है जो डी-51 का हिस्सा रहा हो या फिर जिसने डी-51 में समय बिताया हो ! परंतु अगर आप इस कहानी का सारांश निकालना चाहें तो आप एक सीख जरूर ले सकते है डी-51 से !
भूतकाल गुजर चुका,भविष्य दूर है, इसलिये वर्तमान को भरपूर
जियो खुशी बिखेरते हुए और गम के साथ लडते हुए ! “

D-51 जिन्दाबाद !!!!!!


Darshan Mehra


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on Monday, September 15, 2008





मुझे लगता है कि प्रेम एक ऐसा विषय है जिस पर अनगिनत कवितायें लिखी गई है ! परंतु अगर सागर में एक बूंद बड भी जाय तो सागर के अस्तित्व में कोई परिवर्तन नहीं होने वाला !
इस कविता का उद्देश्य केवल एक विश्वास को कायम रख्नना था कि मैं कविता भी लिख सकता हूँ ! और यही विश्वास इस कविता के पीछे का वास्त्विक बल भी है !
मैं जानता हूँ कि कविता बहुत साधारण है परंतु बस यही कहुँगा कि अगर पुत्र बहुत सुदंर ना भी हो तो पिता का प्रेम कम नहीं होता !




             तुम प्रेम हो .... 

मन तू क्यों इतना विचलित है ?
इस धीर-अधीर के पथ पर तू क्यों इतना व्याकुल है ?
क्यों सन्नाटे की आहट भी हृदय को गूँज रही है ?
क्यों पसारता है अस्थिर मन, उडने को पंख गगन में ?

धमनियों में रक्त – ताप क्यों शीतल है इतना ?
क्यों सोच के सागर में सिर्फ उसकी ही परछाई है ?
क्यों उस चेहरे को सोच-सोच मुस्कुरा उठता है सारा तन ?
आनन्द की अभिलाषा में यह मन, छुना चाहता है क्यों वो दामन ?


क्यों फासलों का दर्द इतना गहराता जा रहा है ?
क्यों साँसो का प्रवाह, तीव्र वेग से उफन रहा है ?
मन्दिर की सी अनूभूति क्यों है आत्मा को ?
क्यों तेरी याद की पोटली खुद-ब-खुद खुलती जा रही है ?

भावनायें क्यों शब्दों का रूप लेने में विफल हैं ?
और क्यों शब्द यह कह गूंज रहें हैं कि ”तुम प्रेम हो ....







Darshan Mehra

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पितृत्व – एक यात्रा

on Sunday, August 17, 2008





लेखन, एक संतुष्टि और एक आवश्यकता बन चुका है मेरे लिये ! एक निश्चित समयांतराल के पश्चात अंत: से आवाज आती है कि कुछ भावनाओं को शब्दों के रूप में उकेर कर संतुष्टि पायी जाय ! संतुष्टि अपने कच्चे-पक्के लेखक को प्रौढ् बनाने की कोशिश की !
आज का लेख मेरे लिये दिल के करीब है क्योंकि विषय के नायक पाँच बच्चे हैं
सोना , सूबी , सज्जाद , साबरीन और जुलेखा !

पृष्ठ्भूमि से प्रारंभ करते हैं ! आज से ठीक एक वर्ष पूर्व यानि 15 अगस्त 2007 को हम 10-12 युवक-युवतियाँ स्वतंत्रता दिवस मनाने पहुँचे एक स्कूल में “नई दिशा फ्री एजुकेशन सोसाईटी नोएडा “ ! कुछ भारतीय सेना के के सेवानिवृत अधिकारीयों ने करीब 12-15 वर्ष पूर्व इस स्कूल की नींव रखी ! यह स्कूल गरीब तबके के बच्चों की निशुल्क पढाता है ! स्वतंत्रता दिवस का वह समारोह मेरे लिये बहुत ही प्रेरक था ! हम लोग इतने युवा होने के बावजूद AID-PRAYAS (यानि हमारा प्रयास) में केवल शनिवार – रविवार की कक्षायें चलाने में पूरी तरह से सफल नही हो पा रहे थे ! और उन लोगों ने वृद्ध होने के बावजूद सफलता को नमन किया था ! हाँलाकि मैं मानता हूँ कि हम युवाओं के पास रोजगार एक ऐसा क्षेत्र है जो हमारे लिये समय की बाध्यता उत्पन्न करता है !

प्रयास के काफी सारे बच्चों( तकरीबन 20 बच्चे) का सरकारी विद्यालय में प्रवेश तो करा दिया था परंतु सरकारी प्रबन्ध की असफलता यहाँ भी मौजूद थी ! बच्चे स्कूल तो जाते हैं परंतु उनका मानसिक और शैक्षणिक विकास सही तरीके से हो ऐसा वातावरण नही है ! कक्षा चौथी-पाँचवी के बच्चे हिन्दी पढना नही जानते ! विजय भैया की प्रेरणा से सितम्बर 2007 से मैने केवल हिन्दी मात्रा और लेखन की कक्षायें लेनी शुरू की ! बहुत मेहनत के बाद बच्चों का हिन्दी भाषा-ज्ञान सुधर रहा था ! लेकिन एक अडचन थी वह ये कि हम बच्चों को केवल सप्ताहंत (शनिवार-रविवार ) में पढा पाते थे ! इसी मध्य हमें पता चला कि “ नई दिशा” स्कूल हमारे बच्चों को भर्ती कर सकता है ! अगर बच्चे परीक्षा उतीर्ण कर जायॆं ! यह बहुत बडी आशा की किरण थी हमारे लिये ! सभी Volunteers इस दिशा में सोच तो रहे थे परंतु कुछ ठोस कर पाना मुश्किल हो रहा था ! वजह यही कि सप्ताह में दो दिन पढाने से अपेक्षित परिणाम हासिल करना असंभव था ! काफी मेहनत के बावजूद जब सब कुछ व्यर्थ सा लगा तो एक दिन मैंने अरूण से बोला “ यार मैं बच्चों को रोज पढाना चाहता हूँ , पर कैसे पढाया जाय ये नही पता “ ! यद्यपि कठिन था पर इसका जवाब मैंने स्वयं ही ढूँढा ! रात को आफिस से आने के उपरांत 9 से 11 बजे तक पढाया जा सकता था !

जनवरी 2008 के प्रथम सप्ताह से रात्रि कक्षा शुरू की ! मुझे लगा था कि मैं अकेले ही कर लूँगा पर बहुत मुश्किल था , समय हर मुश्किल का जवाब दे देता है ! विकास और कनन ने भी साथ आना शुरू किया ! और हम तीन लोगों की टीम धीरे-धीरे लक्ष्य प्रप्ति के लिये लग गये ! लक्ष्य कठिन था क्योंकि ENGLISH जैसा विषय बच्चों के लिये बिल्कुल नया था औअर हमारे पास केवल 3 महीने थे !
पितृत्व का दौर अब शुरू हुआ ! पहली कक्षा A-B-C-D से शुरू हुई ! प्रत्येक कक्षा के बाद हम एक-एक बच्चे के लिये कुछ नया-नया प्लान बनाते ! सज्जाद को Drawing पसन्द थी तो उसको Drawing की मदद से पढाते थे ! सोना गणित में कमजोर थी तो उसकी गणित पर विशेष ध्यान दिया जाता था ! मुझे याद है कि small a-b-c-d शुरू करने में हम कितना घबरा रहे थे परंतु बच्चे “ नई दिशा “ जाने के लिये दृढ थे ! हमारी कक्षा का सबसे बडा मकसद रहता था “एक अच्छा ईंसान बनाने की नींव रखना” ! आज बच्चे झूठ नही बोलते,गाली नही देते,साफ-सुथरे रह्ते हैं आपस में लडते तो हैं पर मदद भी करते हैं !

मेरे लिये जनवरी से अप्रेल तक के वो तीन माह एक तपस्या के समान थे ! पढने के अलावा जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात थी वह ये कि हम लोग बच्चों के लिये एक पिता की तरह मह्सूस करने लगे थे ! अगर एक दिन कक्षा न जाओ तो बच्चे हम तीनों में से किसी दूसरे के फोन से फोन कर देते थे और सबसे पहला सवाल होता थ कि “सरजी आप क्यों नहीं आये ?“ ! हम लोग भी अगले दिन उनसे मिलने के लिये अत्यधिक उत्सुक रहते थे !

मार्च 2008 के आखिरी सप्ताह का वो दिन जब बच्चों का TEST था “नई दिशा” में ! मैं अपने बोर्ड की परीक्षा के लिये इतना नहीं घबराया कभी जितना इन बच्चों के TEST के लिये घबराया था ! मैं रोज पूजा नहीं करता हूँ पर उस दिन बच्चों की सफलता के लिये भगवान के द्वार भी पहुँच गया ! कनन अपने हर पेपर से पहले मम्मी से बात किया करता था अच्छे परिणाम के लिये ! और बच्चों की सफलता के लिये उस दिन भी उसने सुबह-सुबह मम्मी से फोन पर बात की :) !

बच्चों ने TEST में बहुत अच्छा नहीं किया क्योंकि यह वातावरण उन्होंने पहले नहीं देखा था ! और वैसे भी 3 माह में A-B-C-D से ENGLISH पढ – लिख सकने की उनकी हिम्मत काबिले-तारीफ तो थी परंतु यह वातावरण बिल्कुल नया था !

नई दिशा के मैनजमैंट से हमको एक प्रकार से लडाई लडनी पडी अपने बच्चों का पक्ष रखने में और आखिरकार सोना और सूबी कक्षा 3 में और जुलेखा , सज्जाद और साबरीन कक्षा2 में प्रवेश पाने में सफल हुए ! हम सबने यह सफलता को बहुत विशेष तरीके से मनाया ! Cake काटा गया और बच्चों को उनकी सफलता के लिये treat दी गई ! हम सब आनंदित थे विशेषत: क़नन ,विकास और मैं ! हमारे भीतर का पितृत्व बहुत सुखद मह्सूस कर रहा था !

        और आज का 15 अगस्त हम पून: “ नई दिशा” पहुँचे और संयोगवश केवल हम तीनों यानि मैं ,कनन और विकास ! आज हम पिछ्ले साल की तरह केवल volunteers की तरह नहीं गये थे वरन हम अभिभावक की तरह पहुँचे थे ! हमारे बच्चे अपने दोस्तों को बुला-बुलाकर बोल रहे थे कि ये हमारे दर्शन सर ,विकास सर और कनन सर हैं ! उस क्षण की खुशी को व्यक्त करना कठिन है !
           मैं कह सकता हूँ कि 15 अगस्त 2007 से 15 अगस्त 2008 तक देश ने विकास किया हो या न हो ,देश ने आजादी मह्सूस की हो या नही हो ! परंतु सोना ,सुबी ,जुलेखा,साबरीन और सज्जाद ने जरूर आजादी को मह्सूस किया होगा ,
                             

“अज्ञान से ज्ञान की आजादी, बेहतर शिक्षा पा सकने की आजादी “

शाम को AID-PRAYAS के 15 अगस्त समारोह में हमारी पितृत्व भावना उच्चतम स्तर पर थी जब इन बच्चों ने सबको यह कह सुनाया !

Thank You God for the world so sweet,
Thank You God for the food we eat,
Thank You God for the birds that sing,
Thank You God for everything!

Amen !!




A video which was created for AID-Noida can be viewed on the context of above story ..
https://www.youtube.com/watch?feature=endscreen&v=ydbmBc0biLo&NR=1





Darshan Mehra


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प्रेमचंद्र् के गाँव

on Wednesday, May 7, 2008




महान
साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद्र सही मायनों में हिन्दी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ युग का प्रतीक हैं ! 1880 से 1936 तक के छोटे से जीवनकाल में मुंशीजी ने हिन्दी साहित्य की जो सेवा की उस मील को शायद ही कोई छूँ सके ! मेरे इस लेख की प्रेरणा मुंशी जी की लेखनी की वह मौलिकता है जो कि उनके जीवनंतराल के ग्रामीण भारत की स्पष्ट प्रतिविम्ब पेश करता है !

मैं अकसर अपने अनुभवों को आप सब (पाठकों) के साथ बाँटता हूँ जहाँ कल्पना और अमौलिकता के लिये प्राय: स्थान नहीं होता ! और मैं पून: उपस्थित हूँ अपने इस चिरपरिचित अन्दाज के साथ !!
आज के लेख का शीर्षक मेरे मस्तिष्क में उस समय आया जब मैं अपने गाँव में रात के अन्धेरे में पंचलाईट(LPG Petromax Light) जलाने की कोशिश कर रहा था ! लगभग 3-4 लोग लगे हुए थे एक बडे सिलिंडर में से 4-5 छोटे-छोटे सिलिंडरों में गैस भरने में ! कभी नट-बोल्ट खोलने वाली चाँबी का नम्बर कम पड जाता तो कभी सिलिंडर के नोजल से गैस रिसने लगती पूरे बाखली ( 4-5 घरों का क्रम जिनके आँगन जुडे हुए हो) में गैस की तीव्र गंध फैलने लगी ! यह अभ्यास इसलिये नहीं हो रहा था कि गाँव में बिजली नही थी ! बल्कि इसलिये हो रहा था कि गाँव में अकसर लोग उन समारोहों पर बिजली काट देते हैं जब किसी न चाहने वालों के घर खुशी के दीप जल रहे हों ! प्राय: ये लोग ईर्ष्या और संकीर्ण मांसिकता से ग्रसित होते हैं !

प्रेमचंद्र की कहानियों के पात्र आज से 100-150 साल पहले भी कुछ ऐसे ही हुआ करते थे ! कोई हल्कू के गेहुँ के खेत में अपने गाय चरने डाल देता था तो कोई गाँव की नहर को तोड कर लोगों की फसल नष्ट कर देता था ! मेरा गाँव छोटे पहाडी शहर से 3-4 किमी. दूर है इसलिये विकास की पौंध यहाँ बोई तो जाती है पर उसको पनपने नहीं दिया जाता ! पानी के नल हर दूसरे घर में हैं ,
टेलिफोन की लाईन कम से कम 40 घरों में है यहाँ
तक की रसोई गैस के लिये सिलिंडर हर घर में पहुँच चुका है ! काफी समय से एक जंग चल रही थी वह थी सडक निर्माण की ! मैने पापाजी को कई सालों से “सूचना के अधिकार” यानि आज कल के बहुचर्चित RTI एक्ट का उपयोग करते देखा है ! मैने कई बार पापाजी को लखनऊ और बाद में देहरादून की सरकारी गलियारों के लिये फाईल तैयार करते हुए देखा है और इन फाईलों का विषय हमेशा एक ही होता था “गाँव में सडक-निर्माण “ पापाजी सरकारी कर्मचारी हैं इसलिये हमेशा पत्राचार भेजने वाले की नाम की जगह मम्मी का नाम होता था :) ! और खास बात यह है कि इस बार जब् मैं गाँव गया था तो रोड के लिये काम आधा हो चुका था और साल भर में गाँव में सडक पहुँच चुकी होगी ! आखिरकार उस प्रयास में पापाजी(मम्मी के नाम के साथ :) ) सफल हो ही गये जिसको देखते-2 मैं बच्चे से बडा हो गया !

एक अल्फाज जो मैं अक्सर प्रयोग करता हूँ वह है असमाजिक तत्व , ये वो प्राणि होते हैं जो समाज को दूषित करने में आनन्द उठाते हैं !
गाँव की टेलिफोन लाईन की बात करते हैं ,जमीन के भीतर से फाईबर बिछी हुई है और असमाजिक तत्वों का कृत्य देखो ,वो या तो जमीन को खोद के फाईबर को काट देते हैं या फिर उसमे आग लगा देते हैं ! प्रत्येक वर्ष दो या तीन बार ऐसी घटना जरूर घटती है ! पानी की लाईन का भी कुछ यही हाल है गर्मीयों में कुछ लोग अपने खेतों की सिंचाई करते हैं तो कुछ को पानी के लिये 2-3 किमी. चलना पडता है ! लेकिन एक बात है जो कि “प्रेमचंद्र के गाँव” में हमेशा से विद्यमान है वह है समाजिकता !

कितने भी असमाजिक तत्व क्यों न पनप जायें ,गाँव की समाजिकता को नहीं डिगा सकते !
गाँव मे आज भी अगर कोई वृद्ध बीमार पडता है तो कई नौजवान कंधे तैयार है डोली (सामान्यत: शादी के दिन दुल्हन को डोली में बिठा कर विदा किया जाता है ) में वृद्ध को अस्पताल पहुँचाने को ! 3-4 किमी. की ठेठ चडाई जिसमें अकेले चढना मुश्किल होता है कंधे पर डोली लेकर मरीज को अस्पताल पहुँचाया जाना समाजिकता का ही प्रतीक है ! किसी चोटिल हो चुके बैल/गाय को रात्रि में बाघ के भक्षण के लिये नही छोड़ा जाता बल्कि कई सारे युवा उसे कंधों पर लाकर गौशाला तक पहुँचाते हैं ! और अगर गरीब की लडकी की शादी होती है तो गाँव के लोगों की भागीदारी का यह आलम होता है कि समारोह की सफलता पर कोई भी आशंका न रह सके ! एसे कई उदाहरण हैं जो इस समाजिकता का बखान भली-भाँति करते हैं !

इस लेख का उद्देश्य कोई निष्कर्ष निकालना नही है वरन इस तथ्य से भिज्ञ करवाना है कि “प्रेमचंद्र के गाँव” ज्यादातर मामलों में आज भी उसी पग पर खडे हैं जहाँ आज से 100 साल पहले थे ! ऐसे समाजिक और असमाजिक विभाजन कई प्रकार के हैं परंतु एक बात जो आज के परिदृश्य में भी सत्य है वह ये कि समाजिकता जो कि बडॆ शहरों में बहुत तीव्र गति से विलुप्त होती जा रही है वह गाँवों में संघर्ष तो कर रही है परंतु असमाजिक तत्वों को पट्खनी देने में अभी भी सक्षम है !





Darshan Mehra

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