लेख..

on Friday, November 30, 2007




मुझसे हिन्दी में कुछ लिखने को कहा गया है ,मैं लिखना भी चाहता हूँ ,परंतु अपने विचारों को कलमबद्ध करने में एक बाधा आ रही है और वह है एकाग्रता !
ऐसा नही है कि मैं इस अवसर का सदुपयोग नही करना चाहता लेकिन मेरे मष्तिस्क मे तीन अलग-2 विषय चल रहे हैं !
i.) हिन्दी और पाश्चात्य सभ्यता का हिन्दी पर प्रभाव
ii.) मेरा AID के साथ अनुभव
iii.) Volunteering का मक्सद - एक सच

फिर सोचा,क्यों न तीनों विषयों पर अपना दृष्टिकोण पेश करूँ !
ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि मुझे अंग्रेजी (English) भाषा के प्रयोग से कोई व्यक्तिगत दुख हो ,बल्कि मेरा तो मानना है कि अंग्रेजी सर्वमान्य वैश्विक (ग्लोबल ) भाषा का दर्जा पा चुकी है ! और आज जब तकनीक और विकास ने राष्ट्र की सीमाओं को समाप्त सा कर दिया है तो एक सर्वमान्य वैश्विक भाषा का उदगम अवश्यंभावी है !
इस दृष्टिकोण से अंग्रेजी भाषा का ज्ञान होना अनिवार्य सा लगता है ,लेकिन याद रहे कि “हिन्दी” हमारी मातृ भाषा है ! और अगर बडे शहरों के तथाकथित बडे शिक्षा संस्थान से पढा-लिखा नौजवान/ नवयुवती यह कहे कि “ मुझे हिन्दी पढने,लिखने या बोलने में कठिनाई होती है “ तो यह हमारी राष्ट्रीय सभ्यता व संस्कृति पर आघात है !
मैं कई ऐसे व्यक्तियों को जानता हूँ जो हिन्दी का उच्चारण भी अंग्रेजी की तरह करते हैं , और अंग्रेजी को उच्च भाषा का दर्जा देते हैं ! जबकि मेरा ऐसा मानना है कि
प्रत्येक भाषा अपने आप में महान होती है चाहे वह मूक – बधिर व्यक्ति की “ इशारों वाली भाषा “ ही क्यों न हो !
उपरोक्त वर्णित द्वितीय विषय के बारे में मेरा मत है कि AID (Association for India’s Development – हिन्दी में “भारत विकास संगठन” ) के साथ कार्य करके एक सबसे बडी बात मैं जाना हूँ ,कि हम AID से जुडे युवा, जो कि शिक्षा ,रोजगार,परिवार और समाज के दबावों को ढोते हुए ,हर क्षण अलग-2 सैकडों प्रतियोगिताओं और बाध्यताओं के बावजूद ,एक सकारात्मक मानसिकता से ग्रसित हैं ! ऐसी मानसिकता जो समाज और राष्ट्र के लिये हितकारी है ! यह मानसिकता है “ विकास की मानसिकता “ , “ समाजिक परिवर्तन की मानसिकता “, और अगर सही शब्दों में बोला जाय तो यह मानसिकता
“कमाल” कर सकती है अगर राष्ट्र का हर नागरिक इस मानसिकता का अनुग्रहण करे !
मैं AID का धन्यवाद करूँगा कि मुझे ऐसा मंच प्रदान किया,जहाँ मैं कई ऐसी मानसिकता वाले युवाओं से मिला ! लेकिन एक बात की तरफ मैं ध्यान खींचना चाहुँगा, कि मानसिकता से ज्यादा मह्त्त्वपूर्ण हमारे कृत्य ( या कर्म ) हैं जिनसे हम सही मायनों में एक “समाजिक परिवर्तन “ बन सकते हैं


Volunteering हमें वह मंच प्रदान करता है, जहाँ हम इस मानसिकता के साथ अपने कर्मों से, समाज के उस वर्ग के लोगों के जीवन में “एक परिवर्तन” बन सकते हैं जिस वर्ग को सत्ता और समाज अनदेखा कर देता है ! यह वर्ग जिसे हमारे जैसे युवा हाथों के सहारे की सबसे ज्यादा जरूरत है ! वैसे भी सच ही कहा गया है कि

“Helping hands are better than praying lips!!!! “

अगर सारांश निकालूँ तो यही कहुँगा कि Volunteering करने की पीछे हमारा असल मक्सद केवल हम ही जानते हैं परंतु अगर हम “ समाजिक परिवर्तन “ बनने में सूक्ष्मतम भागीदार भी न बन सके तो यह एक Volunteer की सफलता नही मानी जा सकती !!




Darshan Mehra

PS: your feedback always motivates to write better ,so give it now on COMMENT section :)




4 comments:

Priy said...

Hey! I've just gone through your write ups, though not completely but I've found them extremely pleasant to read... Vocabulary used is impressive... you can even replace words like 'nature' with 'swabhaav'..
[Aid]

Unknown said...

good to see the vocabulary used,looks like a as if a new author is coming into existence.

Keep this up!

selva ganapathy said...

I read this in the newsletter and keep it up

Arvind Radhakrishnen said...

Nice to see a facet of urs which is unknown to me..

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